पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४१

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(१३२२) योगवासिष्ठ । आत्माकी अपेक्षाकरिकै है,दृश्यविषे विराट्,अरुआत्माविषेइसकाअनुभव है ॥ हे रामजी ! इसीप्रकार इसने उपजिकारे सृष्टि रची हैं, जैसे एक विराट् पुरुषने आदि निश्चय किया है, तैसेही अलग है, सो यह आपही उपजा है, अरु आपही लीन हो जाता हैं । हे रामजी । जिस प्रकार विराट्की आत्माते उत्पत्ति हुई है, तैसेही सब जीवकी है, यह सब विरारूप है, परंतु जो स्वरूपते उपजिकारे दृश्यसाथ तद्रूप हुए, अरु वास्तव स्वरूप जिनको भूलि गया, सो जीव तुच्छरूप भये, अरु स्वरूपसों ऊरिकार स्वरूपते न गिरे, अरु आगे अपनाही संकल्परूप विश्वदेख प्रमाद न हुआ, तिसका नाम विराट् आत्मा है ॥ हे रामजी ! जीव चेतनरूप है; अरु निराकाररूप है, इसको जो शरीरका संयोग हुआ है, सो कलनाकार हुआ है, जब आपको दृश्य संयुक्त देखता है, तब महाआपदाको प्राप्त होता है, जब द्वैतते रहित निर्विकल्प होकार देखे, तब शुद्ध चेतनघनआत्मपदको प्राप्त होताहै । हे रामजी । यह विराट् कैसा हैं, सबका उत्पन्नकर्ता है, सो ऐसे कई विराट् आत्मपते उदय हुए हैं, अरु कई मिटि गये हैं, अरु कई आये होवैगे, जैसे समुद्रते कई तरंग बुद्बुदे उठते हैं, अरु लीन होते हैं, तैसे आत्मारूपी समुद्रते कई उठतेहैं। कई लीन होते हैं, कई उपजेंगे, ऐसा परमात्मा सबका अधिष्ठान,सबके अंतर बाहिर पूर्ण ज्ञानस्वरूप है, ऐसा तेरा अपना आप अनुभवरूपहै ॥ हे रामजी । इससैवेदनको त्यागिकार देख वहीपरमात्मस्वरूप,यह जो कछु तुझको भासताहै, तिसकोविचारिकार त्याग, जब तू इसका त्याग करेगा, तब चिन्मात्र जो परम शुद्ध तेरा स्वरूप है सो प्रकाश तुझको भासैगा, तिसके आगे चेतनताही आव्रणरूप है, जैसे सूर्यके आगे बादलोंका आवरण होता है, जबलग बादल होते हैं, तबलग सूर्यको प्रकाश ज्योंका त्यों नहीं भासता, जब बादल दूर होवें, तब प्रकाश स्वच्छ भासता हैं, तैसे जब ऊरणा निवृत्त होवैगा, तब शुद्ध आत्माहीप्रकाशैगा। इतिश्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विदात्मवर्णनं नाम शता धिकचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १४१ ॥ - - -