पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४२

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ज्ञानबंधयोगवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३२३) शताधिकद्विचत्वारिंशत्तमः सर्गः १४२. ज्ञानबंधयोगवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी यहपरमात्मा पुरुष फुरणेकरिकै जीवसंज्ञाको प्राप्त हुआ है, ऊरणेविषे भी वही है; अरु अपने स्वरूपको नहीं जानता, इसीते दुःख पाता है, जैसे पवन चलता है, तो भी वहीरूप, जब ठहरता है, तो भी वहीरूपहे, दोनोंविषे तुल्य है,तैसे आत्मा सर्वदा एकरस है, कदाचित् परिणामको नहीं प्राप्त भयो, अरु यह जीव प्रमादकरिकै दृश्यको कल्पता है, दृश्यको आप जानता है, इसीते दुःख पाता है, अरु जो इसको अपना स्वरूप स्मरण रहै, तौ दृश्यविषे भी अपना रूप भासै,अरु जो निःसंकल्प होवे तौभी विश्व अपनारूप भासै विश्व भी इसीका रूप है, परंतु अविचारते भिन्न भिन्न भासती है, जैसे स्वप्रकी विश्व स्वप्नवालेका रूपहे, परंतु निद्रादोषकर नहीं जानता,जब जागता है, तब जानता है, कि मैंही था, तैसे यह प्रपंच सब तेरा स्वरूप है, तू अपने स्वरूपविषे निरहंकार स्थित होकार देख तौ बना कछु नहीं अरु जो आत्माते इतर परिच्छिन्न कछु तु बनैगा, तौप्रपंचविश्व भासैगा जो आत्मस्वरूपविषे स्थित होवै तौअपना आप भासेगा प्रपंचका अभाव हो जावैगा । हे रामजी। शून्याशून्य जड चेतन किंचन निष्किचनसत् असत् सब आत्माही पूर्ण हैं, निषेध किसका कारये सब वहीरूप हैं । हे रामजी ! ऐसाअनुभवरूप है, जिसकारि सर्व पदार्थ सिद्ध होते हैं, अरु ऐसे आत्माको मूर्ख नहीं जानते,जैसेजन्मका अंधमार्ग को नहीं जानता तैसे अज्ञानी महाअंध जागती ज्योति आत्माको नहीं जानते, जैसे उलूकादिक सूर्य उदय हुएको नहीं जानते, तैसे वासनाकरि आवरे हुए आपको नहीं जान सकते, जैसे जलविषे पक्षी आवरा होता है, तैसे जीव आवरे हुए हैं, इसीका नाम बंधन है, जब वासनाका वियोग हुआ तब इसीका नाम मुक्ति है । हे रामजी ! विषमताकारकै “इसकी जीव संज्ञा हुई हैं, जब सम हुआ,तब ब्रह्म हैं, सो ब्रह्मअहंकारको