पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४३

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( १३२४ ) योगवासिष्ठ ।, त्यागिकार होता हैं, जैसे खप्परके सयोगकर घटकाश कहाता है, जब खप्पर टूटा तब महाकाश हो जाता है, तैसे जब अहंकार नष्ट हुआ, तब आत्मस्वरूप है ॥ हे रामजी ! अज्ञानकारकै एकदेशी जीव हुआ है, जब परिच्छिन्नताका वियोग हुआ, तब आत्मस्वरूप है ॥ हे रामजी ! अपना वास्तव स्वरूप जो निर्गुण है, तिसविषेशुणका संयोग उपाधिकरिकै भासता है, सो अनर्थरूप है, जब निर्गुण अरु सगुणकी गाँठ टूटी तब केवल अद्वैत तत्त्व अपना आप भोसैगा, सो कैसा स्वरूप है, जो अनामय है, दुःखते रहित है, अरु सत् असते पर है, ज्ञानरूप आदि अंतते रहित है, जिसके पायेते बहुरिपानां कछु नहीं रहता, अरु जिसके जानेते अपर जानना कछु नहीं रहता, ऐसा जो उत्तम पद है, तिसको आत्मत्वकारिकै प्राप्त होवैगा । हे रामजी ! यह जो ज्ञान तेरे ताई कहा है, तिसको आश्रय कारकै तुम ज्ञानवान होना, ज्ञानबंध नहीं होना, ज्ञानबंधते अज्ञानी भलाहै.काहेते कि,अज्ञानी भी साधुसंग अरुसच्छास्त्र श्रवणकार ज्ञानवान होता है, अरु ज्ञानबंध मुक्त नहीं होता, जैसे रोगी होवै; अरु कहै, मुझको रोग कोऊ नहीं,मैं अरोगहौं,तब वैद्यका औषध नहीं खाता. काहेते कि आपको अरोगी जानता हैं, तैसे जो ज्ञानबंध है। तिसते संतका संगभी नहीं होता, अरु सच्छास्त्रोंका श्रवण भीनहींहोता ताते अंधतमको प्राप्त होता है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् । ज्ञानका लक्षण क्या है, अरु ज्ञानबंधका लक्षण क्या है, अरु ज्ञानबंधका फल क्या है सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । तिस पुरुषने आत्माके विशेषण शास्त्रोंते श्रवण किये हैं, जो आत्मा नित्य है, शुद्ध है; अरु ज्ञानस्वरूप है, अरु तीनों शरीरते भिन्न है, ऐसे सुनकरआपको मानता है, अरु विषय भोगनेकी सदातृष्णा रहती है,जो किसीप्रकार इंद्रियोंके विषय मेरे तांई प्राप्त होवें, ऐसा जो पुरुष है, सो ज्ञानबंध है, वह बोध शिल्पी है, बहुरि कैसा है, जो कर्मफलके विचारते रहित है, भला बुरा विचारकरि नहीं करता; तिसविषे विचारता है, अरु मुखते शुभ अशुभ निरूपण करता है, सो शास्त्र शिल्पी है, अरु फलके अथकर्म करता है। एक एक ऐसे हैं,जो शास्त्र उक्त आपको उत्तमकार मानते हैं, अरुशास्त्रों के