पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४४

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ज्ञानर्बधयोगवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ८१३२५) , अर्थ बहुत प्रकार भी कहते हैं, पढते भी हैं, पढावते भी हैं अरु विषयसों • बंधमान हैं, सदा विषयकी चितवना करते हैं, ऐसा पुरुष है सो ज्ञानबंध कहता है, तिस निमित्त अर्थशिल्पी कहता है, चितेरा करनेको समर्थ है, अरु धारणेको समर्थ नहीं ।। हे रामजी ! एक प्रवृत्तिमार्ग हैं, एक निवृत्तिमार्ग है प्रवृत्ति संसारमार्ग है, निवृत्ति आत्मज्ञानमार्ग है, शरु जिस पुरुषने निवृत्तिमार्ग धारा है, अरु प्रवृत्तिमार्ग विषे वर्त्तता है, प्रवृत्ति कहिये जो बहिर्मुख विषयकीओर वर्तता है, अरु इंद्रियोंके विषयकी वांछा करता है, विषयते उपरांत नहीं होता, तिनकार तुष्टमान होता है, अरु स्वरूपका अभ्यास नहीं करता, ऐसा पुरुष ज्ञानबंध कहता है । हे रामजी 1 श्रुति उक्त शुभ कर्म करता है, हृदयविषे उनके फलको धारिकार वह पुरुष ज्ञानके निकटवर्ती है, तो भी ज्ञानबंध है, अरु जिसको आत्माविषेप्रीति भी है, विषयको चितवता है, अरु आपको उत्तम मानता है, सो ज्ञानबंध कहता हैं, अरु जो आत्मतत्त्वका निरूपण यथार्थ करता है, अरु स्थिति नहीं, वह ज्ञानआभास हैं, ज्ञानका फल तिसको प्रत्यक्ष साक्षात्कार नहीं, अरु जिस पुरुषने सिद्धता पाई है, अरु ऐश्वर्य पाया है, तिसकरिअपको बड़ा जानता है, अरु आत्मज्ञानते रहित है, सोज्ञानबंध कहाता है । हे रामजी ! निदिध्यासकारकै जो ज्ञानकी प्राप्ति होती है, तिसकर शांतिका प्रकाश होता है, जबलग शांति नहीं प्राप्त होती, तबलग आपको बडा न मानै ॥ हे रामजी । बड्या जो होता है, सो ज्ञानकार होता है, जबलग ज्ञान नहीं उपजा, तबलग आत्मपरायण होवै अभ्यास यत्न करै, छोडिन देवे, अरु चेष्टा भी शुभ करै; शुभ व्यवहारकार उपजीविका उत्पन्न करनी, प्राणोंकी रक्षाके निमित, अरु प्राणोंको ब्रह्म जिज्ञासाके अर्थ धारे, अरु ब्रह्मजिज्ञासा इसनिमित्त है, जो संसारसमुद्र दुःखरूपते मुक्त होवै, बहुरि संसारी न होवै, यह इसी निमित्त आत्मपरायण होवै, जब आत्मपरायण होवैगा, तब दुःख सब मिटि जावेंगे, जैसे सूर्यके उदय हुए अंधकार नष्ट हो जाता है, तैसे आत्मपदको प्राप्त हुए दुःख सब नष्ट हो जाता है, तिस पदको प्राप्त होनेका उपाय यह है, कि सच्छास्त्रोंते आत्माके विशेषण सुनै हैं, तिनको समुझिकार वारंवार