पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४५

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( १३२६) योगवासिष्ठ । अभ्यास करना, अरु अनात्म दृश्यते उपत होना, तिनको मिथ्या जान वैराग्य करना, इसकरि आत्मपदकी प्राप्ति होती है ॥ इति श्रीयो० निर्वा० ज्ञानबंधयोगो नाम शताधिकद्विचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १४२ ॥ । शताधिकत्रिचत्वारिंशत्तमः सर्गः १४३. सुखेनयोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जिज्ञासी होकरि ज्ञाननिष्ठ होना जो कछु गुरुशास्त्रोंते आत्मविशेषण श्रवण किये हैं, तिनविषे अहंप्रत्यय करणी, स्थित होना इसीका नाम ज्ञाननिष्ठा हैं. तिस ज्ञाननिष्ठाकार परमउच्चपदको प्राप्त होता है. जो सबका अधिष्ठानपद है, तिस पदको पाता है, जब तिस पदविषे स्थित हुआ, तब कर्मोके फलका ज्ञान नहीं रहता, काहेते कि, शुभ कर्मोवि फलका राग नहीं रहता, अरु अशुभ कमौके फलविषे द्वेष नहीं रहता, ऐसा जो पुरुष है, सो ज्ञानीकहाता हैं, शीतलचित्त रहता है, अकृत्रिमशाँतिको प्राप्त होता है, किसी विषयके संबंध कारकै नहीं फसतो, अरु वासनाकी गाँठ टूटि जाती है, ऐसा जो पुरुष है, तिसको ज्ञानी कहते हैं ॥ हे रामजी ! बोध सोई है, जिसके पाएते बहुरि जन्म न पावै, जन्ममरणते रहित होवै, तिसको ज्ञानी कहते हैं, जब संसारते विमुख हुआ जो संसारकी सत्यता न भासै, तब जानिये कि, बारे जन्म न पावैगा, काहेते जो संसारकी वासना नष्ट हो गई ।। हे रामजी ! जिसकार ज्ञानीकी वासना नष्ट होतीहै, सो श्रवण कर. यह जो संसार है, तिसका कारण नहीं देखता, जो पदार्थ कारणते उत्पन्न नहीं भया, सो सत्य नहीं होता, ताते संसार मिथ्या है, जैसे जेवरीविषे सर्प भासता है, तिसका कारण कोऊ नहीं, भ्रमकार सिद्ध हुआ है तैसे यह विश्व कारणविना दृष्टआता है, ताते मिथ्या है, जो मिथ्या है, तो इसकी वासना कैसे होवें ॥ हे रामजी ! जो प्रवाहपतित कार्य आनि प्राप्त होवै तिसविषे ज्ञानी विचरता है, संकल्पते रहित होकर अपना अभिमान कछु नहीं करता, जो इसप्रकार होवै, इसप्रकार न होवै अरु हृदयकरि