पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४६

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सुखेनयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३२७ ) आकाशकी नाई संसारते न्यारा रहता है, अरु फुरणेते शून्य है, ऐसा जो पुरुष है, सो पंडित कहता है । हे रामजी । यह जीवपरमात्मरूप है। जब अचेतन होवे, तब आत्मपदको प्राप्त होवे, अचेतन कहिये संसारके । ऊरणेते रहित होवे; जब जड़ हुआ तब आत्मा है, जैसे आमका वृक्ष फलते रहित है, तो भी नाम तिसका आम है, परंतु निष्फल है तैसे यह जीव आत्मस्वरूप है, परंतु चित्तके संबंधकार इसका नम जीव है, जब चित्तका त्याग करे,तब आत्मा होवै, जैसे आमको फल लगा तब शोभता है, अरु सफल कहाता है, तैसे जब यह जीव आत्मपदको प्राप्त होता है, तब महाशोभाकर विराजता है ॥ हे रामजी ! ज्ञानवान् पुरुष कर्मके फलकी स्तुति नहीं करता, फल कहिये इंद्रियोंके विषय इष्टकी वांछा नहीं करता, जैसे जिस पुरुषने अमृतपान किया होवै, सो मद्यपान कर नेकी इच्छा नहीं करता, तैसे जिसको आत्मसुख प्राप्त भया है, सो विषयंके सुखकी वांछा नहीं करता, अरु जो किसी पदार्थको पायकार सुख मानते हैं, सो मूढ हैं, जैसे कोङ पुरुष कहै,वंध्याके पुत्रके कांधेपर आरूढ होकार नदीके पार उतरता है, ऐसा पुरुष महामूढ है. काहेते कि, जो वंध्याका पुत्र है नहीं, तो तिसके कांधेपर कैसे आरूढ होवैगा, तैसे जो पुरुष कहै, संसारके किसी पदार्थको लेकर मुक्त होऊंगा, सो महामूढ है ॥ हे रामजी । ऐसा पुरुष ज्ञानते शून्य है, तिसकी इंद्रिय स्थित नहीं होती, अरु जो शास्त्रों के अर्थ प्रगट भी करता है, परमात्मज्ञानते रहित है, तिसको इंद्रिय बलकरि गिराय देती हैं, विषयविषे जैसे इल्ल पक्षी आकाशविषे उडता भी मौसको देखकर पृथ्वी ऊपर गिर पडता है, तैसे अज्ञानी विषयको देखकर ऊर्ध्वते गिर पडता है, ताते इन इंद्रियोंको मनसंयुक्त वश करो, अरु युक्तिकार तत्परायण हो, अन्तर्मुख होहु यह जो संवेदन फुरती है,, तिसका त्याग करौ,जब फ़रणा निवृत्त हुआ, तब परमात्माका साक्षात्कार होवैगा, जब परमात्माका साक्षात्कार हुआ, तब रूप अवलोकन नमस्कार जो त्रिपुटी है, तिसके सबअर्थकी भावनाजाती रहैगी, केवल आत्मतवही प्रत्यक्ष भासेगा, अरु संसारका अत्यंत अभाव हो जावैगा ॥