पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४८

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सुखेनयोगौपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १३२९) सौ ईश्वर है, सर्व शरीर अरु अंतःकरणका ज्ञाता है, अरु सर्व लिंग-- शरीरका अभिमानी है, सर्वका अपना आप जानता है, ताते ईश्वर है॥ हे रामजी ! यद्यपि विश्वरूप है, तौ भी अहंकारकारकै तुच्छंसा भया हैं, जैसे मेघते भिन्न हुआ एक बादल कहाता है, अरु घटकार घटाकाश कहता है, सो बादल भी मेघ है, अरु घटाकाश भी महाकाश है, तैसे अहं ऊरणेकार प्रसन्न हुआ है, सो कुरण दृश्यविषे हुआ है, अरु दृश्य फुरणेविषे हुई है, जैसे फलविषे गंध हैं, अरु तिलोंविषे तेल है, तैसे ऊरणेविषे दृश्य है । हे रामजी ! आत्माविषे,बुद्धि आदिक ऊरणा है, जो मैं हौं, जब ऐसे फुरता है, तब आगे दृश्य होती है, जब अहंकार होता है, तब आगे देह इंद्रियादिक विश्वको रचता है, ताते ऊरणेविषे दृश्य हुई, अरु ऊरणा दृश्यविषे हुआ, जो देह इंद्रियां मन आदिक दृश्य हैं, तिनविषे अहं प्रत्यय कारकै ऊरणा हुआ, इसी कारणते इसकी जीवसंज्ञा हुई है, जब ऊरणा नष्ट हो जावे, तब आत्माका साक्षात्कार होवे, अरु यह जन्म मरण आना जाना आदिक विकारसंयुक्त प्रपंच भासता है, तौभी मिथ्या है, काहेते जो विचार कियेते कछु नहीं रहता, जैसे केलेके स्तंभविषे सार कछु नहीं, तैसे विचार कियेते प्रपंचको नहीं पाता, जैसे स्वप्नविषे जन्ममरण आना जाना देखता है, परंतु मिथ्या है, तैसे जाग्रत् क्रिया भी सर्व मिथ्या है ॥ हे रामजी जो परावरदर्शी है, सो एती अवस्थाविषे निर्विकल्प है, जन्मता भी है, परंतु नहीं जन्मता, सर्वं क्रिया करता भी है, परंतु नहीं करता, स्वप्नवत है, स्वरूपते कदाचित् कछु नहीं हुआ ॥ हे रामजी । ज्ञानी जाग्रतविष भी ऐसेही देखता है, जब यह आत्मपदविषे जागता है, तब सर्व विकारका अभाव हो जाता है, कोऊ विकार नहीं भासता ॥ हे रामजी ! जो पुरुष इंद्रियोंके विषयकी चितवना करता रहता है, सो बंध है, काहेते जो अभिलाषही दुःखदायक है, यद्यपि राजा है, अरु अंतर अभिलाष हैं तौ दरिद्री जान, अरु जो पुरुष छाजन भोजन शयन कष्टसाथ देखता है, जो भोजनः भिक्षाकरि होता है, अथवा किसी अपर यत्रकरि होता है, अरु छाजन भी निर्गुणसा पहिरता है, अरु शयन करणैको स्थान् भी जैसा कैसा