पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४९

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( १३३० ) योगवासिष्ठ । होता है, अरु ज्ञानकार संपन्न है, तो उसको चक्रवर्ती जान् ॥ ॥ दोहा ।। सात गांठ कौपीनकी,साध न माने शैक। राम अमल माता फिरे, गिनै इंद्रको रंक ॥ १ ॥ हे रामजी । तिसको चक्रवर्तीते भी अधिक जान, यद्यपि आरंभ क्रिया करता भी इष्ट आता है; अरु संकल्पते रहित हैं, तौ कछु करता नहीं, करना अकरना क्रियाका दोनों उसको तुल्य है। काहेते कि, नरभिमान है, शुभ कर्म करनेते स्वर्ग नहीं भोगता, अशुभ कर्म करे नरक नहीं भोगता, तिसको दोनों एकसमान हैं ॥ हे रामजी! ज्ञानी अज्ञानीकी चेष्टा समान है, परंतु अज्ञानी अहंकारसहित करता है, इसकार हुःख पाता है, ताते तुस अहंकारका त्याग करौ, अरु अपना स्वरूप जो हैं, चैत्यते रहित चेतन तिसविषे स्थित होछु, जो संशय सर्व मिट जावें, अरु जेते कछु जीव तुमको भासते हैं, सो सर्व संवित्रूप हैं, संवित कहिये ज्ञानरूप हैं, परंतु बहिर्मुख जो ऊरते हैं, तिसकरि भ्रमको प्राप्त हुए हैं, जब अंतर्मुख होवें तब केवल शातिरूप हैं, जहाँ गुण अझ तत्वका क्षोभ नहीं, तिसको शांतपद कहते हैं । हे रामजी । जैसे विराट्का मन चंद्मा हैं, तैसे सर्व जीवका है, अर्थ यह जो सब विराट्रूप हैं परंतु प्रमादकार वास्तव स्वरूप नहीं भासता ॥ हे रामजी । यह जीव संपूर्ण देहविषे व्यापक है, अरु भासता हृदयकोशविषे है, जैसे गुलाबकी संपूर्ण बूटीविषे सुगंधि व्यापक है; परंतु भासती फूलविही हैं, तैसे चेतनसत्ता सर्व शरीरविड़े व्यापक है, परंतु भासती हृदयविषे है, जो त्रिकोण निर्मल चक्र है, तहाँही अहंब्रह्मका उत्थान होता है, तहते वृत्ति पसारिकारे पंच इंद्रियोंके छिद्रुते निकसिकारि विषयको ग्रहण करती हैं, तिन इंद्रियों के इष्ट अनिष्ट प्राप्तिविषे राष्ट्र देव मानता है ताते ॥ हे रामजी ! एता कृष्ट प्रमादकारकै है, जैब बोध हो तब संसारभ्रम मिटि जावै ॥ हे रामजी वासनारूप जो संसार है तिस बीज अहंभाव है, प्रत्यक्ष संसारविषे फुरता है, जब इसकी अचितवना होवे, अझ स्वरूपविषे अहंप्रत्यय होवे, तब संसारभ्रम मिटि जावे, अरु अहंभावके शांत हुए ज्ञानवान् यंत्रीकी पुतलीवत चेष्टा करता है । हे रामजी ! जो पदार्थ सत है तिसका।