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योगवासिष्ठ।

युक्ति दो प्रकारकी है। एक सम्यक् ज्ञानकरिकै अरु दूसरी प्राणके रोकने करिकै॥ राम उवाच॥ हे भगवन्! इन दोनोंविषे सुगम कौन है, जिसकरि दुःख भी न प्राप्त होवै, अरु बहुरि क्षोभ भी न होवै॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! दोनोंप्रकार योगशब्दकार कहाताहै तौ भी योगनाम प्राणके रोकनेका है, संसारके तरणेके योग अरु ज्ञान दोनों उपाय हैं, इन दोनोंका फल एकही सदाशिवने कहा है॥ हे रामजी! किसीको योग करना कठिन है, अरु ज्ञानका निश्चय सुगम है, किसीको ज्ञानका निश्चय कठिन है, अरु योग करना सुगम है, अरु जो मुझते पूछे तो दोनोंविषे ज्ञान सुगम है, इसविषे यत्न कष्ट थोड़ा है, जाननेयोग्य पदार्थको जानेते बहुरि स्वप्नविषे भी भ्रम नहीं होता है, साक्षीभूत होकार दृष्ट देखता है, अरु जो बुद्धिमान योगीश्वर हैं, तिनको भी यत्न कछु नहीं, स्वाभाविक चले जाते हैं, तिनकी एक युक्ति समझिकरि चित्त शांत हो जाता है॥ हे रामजी! दोनोंकी सिद्धता अभ्यास यत्नकरि होती है, अभ्यासविना कछु प्राप्त नहीं होती, सो ज्ञान तो मैं तुझको कहा है, जो हृदयविषे विराजमान ज्ञेय है, तिसको जानना ज्ञान है, अरू जो प्राणअपानके रथ उपर आरूढ है, हृदयरूपी गुहाविषे स्थित है॥ हे रामजी! तिस योगका भी क्रम सुन, जो परम सिद्धताके निमित्त है, प्राणवायुजो नासिका अरु मुखके मार्ग हो आती जाती है, तिसके रोकनेका क्रम कहता हौं तिसकरि चित्त उपशम हो जाता है॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे ज्ञानज्ञेयविचारवर्णनं नाम द्वादशः सर्गः ॥१२॥



त्रयोदशः सर्गः १३.

सुमेरुशिखरलीलावर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! ब्रह्मरूपी आकाश है, तिसके किसी कोणविषे यह जगतरूपी स्पंद आभास फुरा है, जैसे मरुस्थलविषे सूर्यकी किरणोंकार मृगतृष्णाका जल फुरि आता है, तैमे जगत् ब्रह्मते फुरि आया है, तिस जगतके कारणभावको सोई प्राप्त हुआ है,