पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १३३२) यौगवासिष्ठ । ताते एकअर्हकार संवेदनका त्याग करौ, अपर यत्न कोऊ न करौ, तुमको यही हमारा उपदेश है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सुखेनयोगोपदेशो नाम शताधिकत्रिचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १४३ ॥ = .. शताधिकचतुश्चत्वारिंशत्तमः सर्गः १४४, मंकीऋषिपरमवैराग्याँर्नरूपणम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह जो वासनारूप संसार है, तिसकी तुम तार जाहु, जैसे मंकीऋषि तरा है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! । मंकऋषि किस प्रकार तरा है, सो कृपा कार कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । मंकीऋषिका वृत्तान्त श्रवण कर, तिसने महा तीक्ष्ण तप किये थे, एक समय तुम्हारा जो पितामह है, राजा अज, तिसने मेरा आवाहन किया; मैं अपने गृहविषेष आकाशमें था, तब मैं राजा अजके निमित्त आकाशते उतरा मार्गविषे एक अटवी देखी, तिसविषे मानो एकांत अनेक वनके समूह हैं, सो मैंने महाभयानक शून्य देखे, तहाँ न कोऊ मनुष्य दृष्ट आवै न कोऊ पशु दृष्ट आवे; शून्य मानौ एकति ब्रह्मस्थान है,केतेक योजनपर्यंत मरुस्थलही दृष्ट आवै, अरु मध्याह्नका समय था, अति तीक्ष्ण धूप पडै, रेत उरु पर्यंत तपी हुई तिसविषे मैं प्रवेश किया, कई वृक्ष तहाँ दुग्ध हुए हृष्ट-आये ॥ हे रामजी ! तिस शून्य स्थलविवे एक पैडोई अति दुःखित आता मुझको दृष्ट आया, तिसने यह वाक्य सुखते निकासा कि, हाय हाय महाकष्ट पाया है ! जैसे किसीको दुष्ट जन दुःख देते हैं, अरु दया नहीं करते तैसे मुझको धूप अरु पैंडेने जलाया हैं, मैं अति दुःखको प्राप्त भया हौं ॥ हे रामजी ! ऐसे वचन कहता हुआ मेरे पासते चला जावै, केता मार्ग आगे गया तब एक धीवरका गांव तिसको दृष्ट पडा, तहाँ गृह पाँच अथवा सात थे, तिसको देखिकर शीघ्र चला कि, इहाँ मुझको शांति प्राप्त होवैगी, मैं जलपान करौं, अरु छायातले बैठौंगा ॥ हे, रामजी ।