पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५३

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(१३३४). योगवासिष्ठ । न पावैगा ॥ हे रामजी ! इसप्रकार जब मैं कहा तब वह मेरे निकट आयकारे बोलत भया । मंकीऋषिरुवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कौन हौ, अरु तुम्हारा नाम क्या हैं, तुम्हारे वचन सुनकर मैं शाँतिको प्राप्त भया हौं, तुम शून्य जैसे दृष्ट आते हौ, अरु सर्वकारकै पूर्ण हौ, अरु तुम्हारा दिव्य प्रकाश मुझको भासता है, तुम आदि पुरुष विराट् हौ कि, कवन हौ तुम सुंदर दृष्ट आते हौ । हे भगवन् ! जो सुंदर होता है, तिसको देखिकार राग उपजता है, अरु चित्त क्षोभको भी प्राप्त होता है, अरु तुम ऐसे सुंदर हौ कि, तुम्हारे दर्शनकार मुझको शांति आती जाती है, तुम दिव्य तेजको धारे हुए दृष्ट आते हौ, जेते कछु तेजवान हैं, देखने नहीं देते तिनको तिरस्कार करते हौ, अर्थ यह कि, अपर सुंदरता तुम्हारे समान किसीकी नहीं, अरु तुम्हारा तेज हृदयको शांति उपजाता है, शीतल प्रकाश है । हे भगवन् ! तुम उन्मत्तवत् घूर्मसे दृष्ट आते हो, सो कैसी शांतिको लेकर एकांतविषे स्थित हौ, अरुअपने स्वरूप प्रकाशकी दया करते हुए आते हौ, अरु पृथ्वीपर स्थित भी इष्ट आते हो, परंतु त्रिलोकीके ऊपर विराजमान भासते हौ, अरु एकाकी दृष्टि आते हौ, परंतु सर्वात्मा हौ, अरु किंचित् अकिंचित् तुमही हौ, सर्व भाव पदार्थते शून्य दृष्ट आते हो, अरु सर्व पदार्थ तुम्हारी सत्ताकार प्रकाशते हैं, सर्व पदार्थके अधिष्ठान हौ; तुम्हारे नेत्रोंके खोलनेकार उत्पत्ति होती है, अरु हुँदनेकार लय हो जाती है, ताते ईश्वर हौ, अरु सकलंक दृष्ट आते हो, परंतु निष्कलंक हौ. अर्थ यह कि, ऊरणा तुम्हारेविषे इष्ट आते हैं, परंतु अंतरते शून्य हौ, अरु किसी अमृतको पायकर तुम आए हौ, अरु बड़े ऐश्वर्यकार संपन्नदृष्टि आते हौ, ताते, हे भगवन् ! तुम कौन हौ अरु जो सुझते पूछौ तू कौन है, तो मैं माँडव्यऋषिके कुलविषे हौं अरु मेरा नाम मंकी है, मैं ब्राह्मण हौं, तीर्थयात्राके निमित्त निकसा था, अरु सर्व दिशा भ्रमा हौं, अतिभयानक स्थानोंविषे जो तीर्थ हैं, तहां भी गमन किया है, परंतु शांति मुझको प्राप्त न भई, ऐसी शांति कहूँ न पाई जो इंद्रियोंकी जलनते रहित होइये, अब मैं गृहको चला हौं। हे भगवन्! अद गृहते भी चित्त विरक्त भया है, कि यह संसारही मिथ्या है, तो गृह