पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५५

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योगवासिष्ठ । हे भगवन् !-यह संसार असार है, अरु लोककी बुद्धि विषयकी ओरही धावती हैं, जहां दुःखही होता है, जैसे जल नीचे स्थानको चला जाता हैं, तैसे हमारी बुद्धि नीचे स्थानोंविषे धावती है, वही चाहती हैं । हे भगवन् ! जेते कछु भोग हैं, तिनको मैं भोगा है, परंतु शांति न पाई, उलटी तृष्णा बढती गई, जैसे तृष्णा लगै अरु खारा जलपान करिये तौ तृष्णा नहीं मिटती, बढती जाती हैं, तैसे विषयके भोगनेकार शांति नहीं प्राप्त होती, तृष्णा बढ़ती जातीहै । हे मुनिराय ! देह जर्जरीभाव हो जाती है, अरु दंत गिर पड़ते हैं, अति क्षोभ होता है, तो भी तृष्णा नहीं मिटती, ताते अब मैं दुःखको चाहता हौं, सुख कोऊ नहीं चाहता, काहेते कि संसारके जेते सुख हैं, तिनका परिणाम दुःख है, जो प्रथम दुःख हैं, तिसका परिणाम सुख है, इसीते दुःख चाहता हौं, संसारके सुख नहीं चाहता ॥ हे भगवन् ! अपनी वासनाही दुःखदायक है, जैसे पुराण गुफा बनायकारि तिसविपे आपही फैंस मरती है, तैसे अपनी वासनाकारे आपही बंधमान होता है। हे मुनि! वह काल कब हुआहै,जो अज्ञानरूपी हस्तीने सुझको वश किया है, अरु तिसका नाश करनेहारा ज्ञानरूपी सिद्ध प्रगट होवैगा,अरु कर्मरूपी तृणोंका नाशकर्ता विवेकरूपी वसंत कब प्रगटैगा अरु वासनारूपी अंधेरी रात्रिका नाशकर्ता ज्ञानरूपी सुर्य कब उदय होवैगा। हे भगवन् ! वैताल तबलगभासता हैं, जबलग निशा है,जब सूर्य उदय होवैगा, तब निशा जाती रहेगी, बहुरि वैतालन भासेगा, सो अहंकाररूपी वैताल तबलग हैं, जबलग अज्ञानरूपी रात्रि दूर नहीं भई ॥ हे भगवन् ! जब संतजनके उपदेशते आत्मज्ञानरूपी सूर्य प्रगटै,तब अहंकाररूपी वैताल तहां नहीं विचरता, संतजनका संग अरु सच्छास्त्रोंका देखना चांदनी रात्रिवत् है, तिनकार जब स्वरूपका साक्षात्कार होवे,तब दिनहुआ,जबलगसंतजनका संग अरु सच्छास्त्रोंका देखना न होवै, तबलग अँधेरी रात्रि॥ हे भगवन् ! जिसको सच्छास्त्रका श्रवण भी होवे, बहुरि विषयकी ओर भी गिरे, तौ बडा अभागी जानिये सो मैं हौं, परंतु अब मैं तुम्हारी शरणको प्राप्त भया हौं, मेरे हृदयरूपी आकाशविषे जो अज्ञानरूपी कुहिड है, सो तुम्हारे वचनरूपी