पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

-:

- - भकीपिप्रबोधवर्णन-निवोंणप्रकरण ६. (१३३७ ) शरत्काल कारकै नष्ट हो जावेगी, हृदयाकाश निर्मल होवैगा॥हे भगवन् ! मैं त्रिदंड साधे हैं, दीर्घकालपर्यंत मनकरि भी, शरीरकर भी, वाणीकरि भी यह तीन तप किये हैं, परंतु आत्मप्रकाश नहीं हुआ, अब मैं तुम्हारी शरणागत हुआ तराँगा, ताते कृपा कारकै उपदेश करौ, जो मेरे हृदयका तम दूर होवै॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मंकीवैराग्ययोगवर्णनं नाम शताधिकपंचचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ ३४८ ॥ शताधिकषट्चत्वारिंशत्तमः सर्गः १४६. मंकीऋषिप्रबोधवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे तात ! संवेदन भावना वासना कलना यह चारौं अनथके कारण हैं, जब इनका अभाव हो जावै, तब कल्याण होवै ,शुद्ध चिन्मात्र पद प्रत्यक्ष चेतन अपने आपविषे जो अहंकार उत्थान है,सो संवेदन है, अरु भावना यह जो कछु बना बहुरि चेता अरु अपनाआप चित्त स्मरण भया, तब भ्रम मिटि जाता हैं, अरु जो कछु बनाई, तिसकी भावना हुई, जो मैं यह हौं, तब भावनाकार संसार दृढ़ हुआ, बहुरि तैसेही वासना हृढ़ होती है, अपने शरीर के अनुसार नानाप्रकारकी कलना होती है, बहुरि संसारके संकल्पविकल्प उठते हैं ॥ हे ब्राह्मण ! यह चतुर अनर्थके कारण , जब इनका अभाव हो जावै तब कल्याण होवे, अरु जेते कछु शब्द अर्थ हैं, तिनका अधिष्ठान प्रत्यकू चेतन है, सर्व शब्द उसीके आश्रित हैं, अरु सर्व वही है, जब तू ऐसे जानैगा, तब वासना क्षय हो जावैगी, जब अहँ संवेदन इसको फुरती है, तब आगे - संसार भासता है, जैसे वसंतऋतु आती हैं, तब वल्ली प्रफुल्लित होती हैं। तैसे जब संवेदन फुरती है, तब आगे संसार सिद्ध होता है, जब संसार हुआ तब नानाप्रकारकी वासना फुरती हैं, अरु संसार नहीं मिटता ॥ हे अंग ! संसार इसका नाम है जो संसरता है, जब संसरना मिटि जावै, तब आत्मपदही शेष रहै, सो तेरा अपना आप है, ताते इस ऊरणेको त्यागिकार अपने आपविषे स्थित होहु,सवै तेराही रूपहैजबलग वासना