पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५७

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योगवासिष्ठ । फुरती है, तबलग संसार दृढ हो जाता है, जैसे वृक्षको जल दीजिये तब बढ़ता जाता है, तैसे वासनारूपी जल देनेकार संसाररूपी वृक्ष वृद्ध हो जाता हैं, ताते वासनाका नाश करौ, कारण यह कि, संवेदुन ऊरै,जब वृक्ष जलते रहित भया, तब आपही जलिजाता है ॥ हे पुत्र आत्माविषे जगत् कुछ हुआ नहीं, केवल परमार्थसत्ता हैं, जैसे जेवरीविषे सर्प कछु वस्तु नहीं, जेवरीके अज्ञानते सर्प भासता है, तैसे आमाके अज्ञानते संसार भासता है. जब तू आत्मपदको जानैगा, तब परमार्थसत्ताही भासैगी, जैसे बालक अपने परछायेविषे भूत कल्पिकारि भय पाता है, जब विचारकर देखा तब भूत कोऊनहीं,भय दूर होजाताहै; तैसे आत्माके अज्ञानकार संसारके राग द्वेष जलाते हैं, अरू ज्ञानवानको वासनासयुक्त संसारका अभाव हो जाता है, केवल अद्वैत आत्मसत्ताही भासती हैं, जैसे स्वमते जागा स्वप्नका प्रपंच वासनासंयुक्त अभाव हो जाताहै, तैसे जब आत्माका साक्षात्कार हुआ, तब वासनासंयुक्त संसारका अभाव हो जाता है, काहेते जो है नहीं, जैसे घटादिकविषे मृत्तिकाते इतर कछु नहीं, तैसे सर्व प्रपंच चिन्मात्रस्वरूप है, इतर कछु नहीं, जेते कछु शब्द अथ हैं, सर्व आत्माही है ॥ हे मित्र ! जो कछु आत्माते इतर भासता है। तिसको भ्रममात्र जान, जैसे आकाशविषे नीलेता भासतीहैं सो भ्रममात्र हैं, जैसे विश्व असम्यकूदृष्टिकरिकै भासती है, सम्यकूदृष्टिकारकै सर्व प्रपंच आत्मस्वरूप हैं, अरु इष्टा दर्शन दृश्य जो त्रिपुटी भासतीहै, सो भी बोधस्वरूप है, बोधही त्रिपुटीरूप होकार स्थित होता है, जैसे स्वप्न विषे एकही अनुभव त्रिपुटीरूप हो भासता है तैसे यह जाग्रतकी त्रिपुटी भी आत्मस्वरूप है ॥ हे अंय ! जेते कछु स्थावर जंगम पदार्थ हैं, सो सर्वआत्मस्वरूप हैं, जो परमात्मस्वरूप न होवे, तौ भासै नहीं, द्रष्टा रूप जो अनुभव करता है, सो एक अद्वैतरूप हैं, तिस स्वरूपके प्रमाद कारि भिन्न भिन्न त्रिपुटी भासतीहै,तो भी इतर कछु नहीं, जैसे स्वप्नविषे त्रियुटी अपने अनुभवकारे भासती है, जो अनुभव न होवै तौ काहेते भासे, तैसे यह त्रिपुदी अनुभव आत्माकारभासती है, ताते सर्व परमा त्मस्वरूप है, भिन्न कछु नहीं, जो नहीं तो है नहीं कहेते जो सर्वंकी