पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४६०

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मंकीऋषिनिर्वाणप्राप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३४१ ) मृत्यु पाते हैं, बडा आश्चर्य हैं, जो वासना विषमरूपहै,इसते जीव वश हुए अविद्यमान जगतको भ्रमकार सत् जानते हैं । हे साधो ! जो इस वासनारूप संसारको तर गये हैं,सो धन्य हैं, वह प्रत्यक्ष चंद्रमाकी नाईं हैं, जैसे चंद्रमा अमृतरूप शीतल प्रकाशवान् प्रसन्न करता है, तैसे ज्ञानी पुरुष हैं; ताते तू धन्य है, जिसको आत्मपकी इच्छा हुई है। हे अंग ! यह संसार तृष्णाकार जलता है; जिनकी चेष्टा तृष्णासंयुक्त हैं, तिनको तू विल्ला जान, जैसे विल्ला तृष्णाकरि चूहेको ग्रहण करता है; तैसे यह जीव भीअपनी तृष्णासंयुक्त चेष्टा करते हैं, अरु इस मनुष्यशरीरविषे यही विशेषताहै कि, किसीप्रकार आत्मपदको प्राप्त होवै, अरु जो नरदेह पायकार भीआत्मपद पानेकी इच्छा न करै तौ पशुसमान हैं, जैसे पशु तैसे मनुष्य ॥ हे मित्र । मूढ़ जीव ऐसी चेष्टा करते हैं, जो प्राणों के अंतपर्यंत भी तृष्णा करते रहते हैं. ॥ हे अंग ! ब्रह्मलोकते आदि काष्ठपर्यंत जेते कछु इंद्रियों के विषय हैं, तिनके भोगनेकार शांति नहीं प्राप्त होती, काहेते जो आपातरमणीयहैं, इनविषे सुख कदाचित्नहीं, जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, तिनको शांति ऐसी है, जैसे चंद्रमाविषे है, अरु सूर्यकी नाईं प्रकाशते हैं, अरु विषयकी तृष्णा कदाचित् नहीं करते, जैसे कोऊपुरुष अमृत पानकार तृप्त हुआ होवै, तब वह फल खानेकी इच्छा नहीं करता तैसे जिस पुरुषको आनंद प्राप्त हुआहै सो विषय भोगनेकी इच्छा नहीं करता, ताते इसी वासनाका त्याग करु, अरु वासनाका बीज अहंकार है, तिसको निवृत्त करु, जो मैं नहीं, काहेसे जो तेरा होनाही अनर्थ है। ॥ हे साधो ! शुद्ध चिन्मात्र निरहंकार पदविषे जो कछु तू आपको प्रसन्न जानता है कि, मैं ब्राह्मण हौं, अथवा किसीप्रकृतिसाथ मिलकर आपको मानता है कि मैं यह हौं, यही अनर्थ है । हे ऋषि ! तेरे नेत्रोंके खोलनेकर संसार उत्पन्न होता है, अरु नेत्रों के मुन्नेकार नष्ट हो जाता है, सो नेत्र क्या हैं, अहंकारका ऊरणा इसीकार आगे विश्व सिद्ध होती है; ताते तेरा होनाही अनर्थ है॥हे अंग ! जैसे जेवरीविपे सर्प भ्रममात्र उदय होता है, तैसे आत्माविषे अहंकार उदय हुआ है, इसीके अभावते भय शति होता है, जब अहंकार हुआ, तब आगे स्त्री कुटुंब