पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४६१

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( १३४२) योगवासिष्ठ । धन होते हैं, सो इसको बंधन हैं, इनका चमत्कार ऐसे हैं, जैसे दामिनीका चमत्कार क्षणविषे उदय होकर नष्ट हो जाता है, ताते इनविषे बंधमान नहीं होना । हे अंग ! जब तू कछु बना तब सब आपदा तुझे आय प्राप्त होगी, अरु जब तू अपना अभाव जानै, तब पाछे आत्मपदही शेष रहैगा, सो परम शतरूप है, जिसकी अपेक्षाकरि चंद्रमा भी अग्निवत् जानता है, सो परम शून्य है, अरु सर्व पदार्थोंकी सत्ता वही है सो आकाशरूप हैं ॥ हे मित्र ! इन मेरे वचनोंको धार, जो मोह तेरा नष्ट हो जावै, यह विश्व कछु हुई नहीं, जैसे आकाशविर्षे दूसरा चंद्रमा भासता हैं, सो है नहीं, तैसे विश्व नहीं आत्माके प्रमाद कार भासताहै ॥ हे ऋषि ! तू तिसीको जान, जिसके अज्ञानकारि विश्व भासता है, अरु जिसके ज्ञानकार लय हो जाता है। हे मंकी ! शून्यमात्र जैसे आकाश है, स्पंदमात्र जैसे पवन है,जलमात्रजैसे तरंग है, तैसेसंवित् मात्र जगत है,ति ससंविआकाशते जो इतर भासता,सो भ्रममात्र जान जैसे असम्यकुदृष्टिकारकै जल पहाडरूपभासे, तैसे असम्यक्दृष्टि कार जगत् भासता है, अरु सम्यक् अवलोकनकार परमार्थसत्ताही भासती हैं जिसके अज्ञानकार जो विश्व भासता है, तिसको भी ज्ञानवान ब्रह्मशब्दुकर कहतेहैं, तिस ब्रह्मपदका अहंकारही व्यवधान है, सो ज्ञानवान्का नष्ट भैया है, ताते सर्वका अधिष्ठान वही परमार्थस्वरूप एक देखते हैं, तिसीविषे तू एकत्र होउ, जैसे आकाशअनेक घटके संयोगकार भिन्न भिन्न भासता है, जो घटको फोडिये तो सर्व एकही होजाताहै, तैसे अहंकाररूपी घट फोडिये तौ सर्व पदार्थ एकत्र हो जातेहैं ॥ हे अंग ! सर्वकी परमार्थसत्ता एक ब्रह्मपद है, सो कैसा है, अजन्मा है, अच्युत आनंद है, शांतरूप है, निर्विकल्प अद्वैत है, सर्वका अधिष्ठानहै, तिसीविषे स्थित हो,जो शिलावत् आत्मसत्ताते इतर कछु न फुरै,ताते निबधबोध हो जावहु ॥ हे मंकीऋषियह जो पदार्थ भासते हैं, दुःखके देनेहारे, ऐसे जो शब्द अर्थ है, सो आकाश फूल हैं, ताते शोक मत करु, जो सर्वं परमार्थसत्ताही हैं, जैसे पुरुष निराकार है, तिसकी भावनाकार अंगका संयोग होता है, जैसे विश्व भी इसकी भावनाकार होताहै, जैसी