पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४६२

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मंकीऋषिनिर्वाणप्राप्तिवर्णन-निवाणप्रकरण ६. (१३४६) जैसी संसारकी भावना दृढ होती है, तैसा रूप आगे दृष्ट आता है, जो विश्व उपादानकार हुआ नहीं, तो आरंभ परिणामकार बना कछु नहीं जैसे यह विना उपादान है तैसे श्रवण कर ॥ हे मित्र ! शुद्ध परमात्माका जो पाना है सो साधन हैं, अरु विश्व उपादान है सो शब्द है, अरु आत्मा अद्वैत है सो इनका हेतु है, अरु अचिंत्य हैं, इसीते विश्व निरुपादान है। स्वप्नवत जैसे स्वप्नसृष्टि निरुपादान होती हैं, तैसे जाग्रत् सृष्टि भी है, अरु उपादान मृत्तिकाकार जैसे घट कार्य बनता है, आत्मा विश्वका उपादान ऐसे भी नहीं, काहेते जो मृत्तिका परिणामकार घटाकार होती है, अरु आत्मा अच्युत है, जैसे भीतविना चित्र होवै सो हैही नहीं, ताते यही विश्व आकाशविचे चित्र है, जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारकी विश्व आधार भीतविना चित्र होता है, तैसे यह विश्व भी आकाशविचे चित्र हुआ है। इसीते आत्मा अकर्ता है, अरु विश्व जो दृष्ट आता है सो निरुपादान है, तिसका शोक क्या कारये; अरु हर्ष क्या कारये यह प्रपंच सर्व आत्मरूप हैं, प्रमादकारिकै नहीं जानाजाता ।। हे साधो ! संवेदनकारकै जो अहंकार फुरता है, तब विश्व भासता है, जैसे स्वप्नविड़े जो कछु बनता है,सो अपने स्वरूपते भिन्न देखता हैं, अरु तिसविषे राग द्वेष भासते, अरु जागे हुए अपर कछु नहीं, सब अपनाही अनुभव था तैसे जब संवेदन उठ गई, तब सब विश्व अपना आप हो जाता है, यह अहंकार होनाही विश्व है, जब अहंकार नाश होवै, तब सर्व शब्द अर्थ जो मैं दुःखी हौं, मैं सुखी हौं, यह नरक है, यह स्वर्ग है इत्यादिक सब परमार्थसत्ताविषेही फुरते हैं। सर्वका अधिष्ठान आत्मा है, ताते सर्व आत्मस्वरूप है; सो कैसा हैं, दृश्यते रहित द्रष्टा है, ज्ञेयते रहित ज्ञाता है, अरु निर्बाध बोध है, इच्छाते रहित इच्छा है, अद्वैत है, अरुनानात्व भी वही है, निराकार है, आकार भी वही है, अकिंचन है, किंचन भी वहीं है, अक्रिय है, अरु सर्व क्रिया वही करता हैं, ऐसे आत्मज्ञानको पायकारे आत्मवेत्ता विचरते हैं, अरु जगत्का भान तिनको किंचित् भी नहीं, जैसे स्वर्णके भूषण जलकै तरंग होते हैं, तैसे सर्व विश्व तिसको आत्मस्वरूप भासता है, ऐसे जानकार सर्व चेष्टा करते हैं, जैसे यंत्रीकी धुतलीविषे संवेदन नहीं फुरती, तैसे