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(१३४४ ) योगवासिष्ठ । उनको जगत् सत्यता नहीं फुरती, काहेते जो निरहंकार भयेहैं॥हे मंकीऋषि ! जैसे स्वर्णविषे भूषण बनि आयेहैं, तैसे आत्माविषे विश्व फुरि आताहै, सो अहंकार फुरा है, ताते इसके अभावकी भावना करु, निरहंकार होकार चेष्टा करु, जैसे पिंखुडेविषे बालकके अंग स्वाभाविक हलते हैं, तैसे ज्ञानीकी निवेदन चेष्टा होती है । हे ऋषि ! जब तू इस मेरे उपदेशको धारैगा तब सुखेनही आत्मपदकी प्राप्ति होवैगी, यह विश्व भी आत्मस्वरूपही भासैगा, जो कछु विश्व भासता है, सो सब आत्मरूपही हैं । हे रामजी ! जब मैं इसप्रकार कहा, तब मंकीऋषि परम निर्वाणपतृको प्राप्त भया, परम समाधिविष स्थित होगया, सौ वर्षपर्यंत समाधि स्थित रहा सो कैसी समाधि जो शिलावत् फुरै कछु नहीं । हे रामजी ! जैसे मंकीऋषि स्वरूपको प्राप्त भयाई, तैसे तुम भी स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे मंकीऋषिनिर्वाणप्राप्तिवर्णन नाम शताधिकसप्तचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १४७ ॥ शताधिकाष्टचत्वारिंशत्तमः सर्गः १४८,
५ ॥ . | सुखेनयोगोपदेशवर्णनम् । . वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी यह विश्व आत्माको चमत्कार है, सर्व वही चिन्मात्रस्वरूप है । हे रामजी । मेरा आशीर्वाद है, जो तुम चिन्मात्रस्वरूपको प्राप्त होडु, जो तुम्हारा अपना आप है, तिसको अपना आप जानो, तुम्हारे दुःख नष्ट हो जावें ॥ हे रामजी ! तुम निर्वाण शांत आत्मा होहु, अरु यथालाभविषे संतुष्ट रहौ, अरु सत् हुआ असतकी नाई स्थित होहु, रागद्वेषका रंग तुसको स्फटिकमणिकी नाईं स्पर्श न करे। हे रामजी! यह सर्वं जगत् एकही स्थित है, अरु वास्तवते एकविषे कछु स्थित नहीं, आदि अंततेरहित एक चिदाकाश अपने आपविषे स्थित है, सो शरीरादिकके नाशविषे भी अखंडरूप है, तिसका यह जगत् चमत्कार है, उपज उपजकारे जलतरंगवत लग्न हो जाता है ॥ हे रामजी! ध्याता ध्यान ध्येय त्रियुटी भ्रांतिमात्र शुद्ध हुई है, अरु वास्तवते द्रष्टा