पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४६४

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सुखेनयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६ ६ १३४५) दर्शन दृश्य सर्व वहीरूप है, तिसते इतर कछु नहीं, सब आत्मस्वरूप हैं। अरु सदा एकरस है, कदाचित् क्षोभको नहीं प्राप्त होता, यद्यपि यह दशा होवै कि, अमावास्याको चंद्रमा हृष्ट आवै, अरू प्रलयकालविता प्रलयकाल वायु चलै, तो भी आत्माको क्षोभ नहीं होता, आत्मपदं सदा ज्योंका त्यों है ॥ हे रामजी ! ऐसे आत्मा प्रमादार जीव दुःख पाते हैं, जब आत्माका प्रमाद होता है, तब इसको प्रत्यक्ष देह इंद्रिय अपनेविपे भासती है, तो भी है नहीं, जैसे बालूसों तेल नहीं । निकसता, अरु आकाशविछे वन नहीं होता, चंदूमाके मंडलवि तप्तता नहीं होती, तैसे आत्माविषे देह इंद्रिय कदाचित् सहीं ॥ हे रामजी ! यह जीव सर्व आत्मारूप हैं,ताते इनको देह इंद्रियोंका संबंध कछु नहीं, परंतु इनकी क्रियाविषे जो अभिमान करता हैं, इसीते बंधमान होता है । हे रामजी । जैसे बेडीपर पुरुष बैठता है, तिसको भ्रांतिकार नदीतटके वृक्ष चलते भासते हैं, तैसे मनके श्रमकार आत्माविषे चित्त देह इंद्रियां भासते हैं, अरू वास्तवते चित्त देह इंद्रियों कछु भिन्न वस्तु नहीं, यह भी आत्मस्वरूप है, तौ निषेध किसका कार ? हे रामजी ! यह मन इंद्वियादिकको अपनी सत्ता कछु नहीं, भ्रांतिकारकै भासती है, जैसे पर्वत ऊपर उज्वल मेघ होता है, तिसविषे वस्त्रबुद्धि निष्फल होती है, तैसे देहादिकविषे अहंबुद्धि निष्फल हैं ॥ ताते हे रामजी । एक अखंड आत्मतत्त्व हैं, अपर द्वैत कछु नहीं, जब तैने ऐसे धारा, तब तू निरंजन स्वरूप है ॥ हे रामजी यह सर्व शरीर चित्तके फुरणेविषे स्थित है, जैसे चित्तके ऊरणेविषे शरीर है, तैसे जीवविचे चित्त है, तैसे परमात्माविषे जीव है । हे रामजी । इसप्रकार फुरणेमात्र दृश्य हुई तौ द्वैत तौ कछु न हुआ क्यों ? इसप्रकार विचारपूर्वक दृश्य भ्रमको त्यागिकार स्वरूपवित्रे स्थित होहु । हे रामजी । ऐसे धारिकारे सुखेन विचरडु, जो कछु चेष्टा नेतिकार आय प्राप्त होवै तिसको करौ, परंतु अपना अभिमान न होवे, जब अपना अहंभाव दूर भया, तब स्पंद होवै, अथवा निस्पंद हौवे, समाधिस्थित हो अथवा राज्य करै, स्थिति क्षोभ तुमको दोनों तुल्य होजावेंगे, जक अपनी