पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४६५

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(१३४६) योगवासिष्ठ । अभिलाषा दूर भई तब जैसी चेष्टा आय प्राप्त होवे तैसीही होवै, वह फुरणा भी अफ़र है, जैसे जलके ज्ञानते तरंग बुद्बुदे जलही भासता है। तैसे तुमको स्पंद निस्पंद दोनों तुल्य होवेंगे, एक अद्वैत सत्ताही भान होवैगी, जैसे सम्यकदर्शीको तरंग अरु सोमजल एक भासता है, तैसे तुमको भी एकही भासैगा, जीवन्मुक्त होहु, अथवा विदेहमुक्त हो, समाधि होवै अथवा राज्य होवै, तुमको दोनों तुल्य हैं, ॥ हे रघुकुलआकाशके चंद्रमा रामजी ! इसको अपनी अभिलाषाही बंधन करती हैं। जब अभिलाषा मिटी, तब कर्म करो अथवा न करौ, बंधन कछु नहीं, काहेते कि करनेविषे भी आत्माको अक्रिय देखता है, अरु अकरनेविषे भी तैसे देखता है, द्वैतभावना तिसकी निवृत्त होजाती है, ताते तिसको चित्त देह इंद्रियादिक सर्व पदार्थ आत्मरूपही भासते हैं । हे रामजी । मैं जानता हौं कि तुम्हारे हृदयका मोह निवृत्त भया है, अब तुम जागे हौ, अरु जो कछु तुमको संशय रहा होवै तौ बार प्रश्न करौ, जो मैं उत्तर देऊ ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सुखेनयोगोपदेशो नाम शताधिकाष्टचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १४८ ॥ शताधिकैकोनपञ्चाशत्तमः सर्गः १४९, निराशयोगोपदेशवर्णनम् ।। राम उवाच ।। हे भगवन् ! एक संशय मुझको है, तिसको तुम निवृत्त करो, एक कहते हैं; कि बीजते अंकुर होता है, अरु एक कहते हैं, अंकुरते बीज होता है, अरु एक कहते हैं, जो कछु कत्तीहै, सो दैवही करता है, अरु एक कहते हैं, कर्म करताहै, तब जन्म पाते हैं, कर्महीकार सब कछु होता है, अपर किसीके आधीन नहीं, अरु एक कहते हैं, जब देह होती हैं तब कर्म करते हैं, एक कहते हैं कमते देह होती है, एक कहते हैं देहते कर्म होते हैं, यह अर्थ है, एक पुरुषप्रयत्न मानते हैं, सो जो जैसे हैं, तैसे तुम कहौ ॥ ॥ वलिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! एक एक मैं तुझको क्या कहौं ? कर्मते आदि देवपर्यंत, अरु घटते आदि आकाशपर्यंत जेती,