पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४६६

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२ । । । = बन III निराशयौगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६ ( १३४७ ). कछु क्रिया कर्मद्रव्य है, सो यह विकल्पजाल सब भ्रांतिमात्र हैं, केवल आत्मस्वरूप अपने आपविषे स्थित है, द्वैत कछु हुआ नहीं ॥ हे रामजी ! जब संवेदन फुरती है, तब सब कछु भासता है,अरु निःसंवेदन हुए कछु नहीं, कर्म पुरुषप्रयत्न सब दैवसमेत आत्माके पर्याय हैं, जैसे शीत श्वेत आदिक बर्फके पर्याय हैं, तैसे यह सर्व आत्माके पर्याय हैं, दैव पुरुष है, अरु पुरुष दैव है, कर्म देह है, अरु देह कर्म है, बीज अंकुर हैं, अरु अंकुर बीज है, दैव कर्म है, अरु कर्म दैव है, सो पुरुषप्रयत्न है, जो इनविषे भेद मानते हैं, सो पंडितविषे पशु हैं, काहेते जो इनका बीज अहंकार है, जब अहंकार हुआ तब सब कछु सिद्ध हुआ, जैसे बीजते वृक्ष होता है, फूल फल टास सर्व बीजते होते हैं, अरु जो बीजही न होवै, तौ वृक्ष कैसे उपजै । हे रामजी । इनका बीज संवेदन है, अहंकार संकल्प संवेदन तीनों पर्याय हैं; जब ऊरणा हुआ तब कर्म देह देव सर्व सिद्ध होते हैं, जब ऊरणा मिटि गया तब कछु नहीं भासता, ईसीको ज्ञान अग्निकार जलाव जो फूल फल टास जलि जावें, यह जो संवेदन फुरती है, जो मैं ही हौं, यही संसारका बीज है, ज्ञानरूपी अग्निकार जलावडु, जब अहंकार नष्ट भया तब द्वैत कछु न भासैगा ॥ हे रामजी । यह जो प्रपंच भासता हैं, तिसका बीज संवेदन है, अरु संवेदनकाबीज शुद्ध संविदतत्त्व, तिसका बीज अपर कोऊ नहीं, दैव कर्म पुरुषप्रयत्न क्या है, सो श्रवण करु, आदि जो स्पंद संवेदन ऊरणा हुआ है, तिसका नाम देव है, काहेते जो कर्मते आदिही फ़रता हैं, बहुरि जो आगे किया करती है, सो कर्म हैं, इसीका नाम पुरुषप्रयत्न है, अरु वह जो कर्मते आदि देवरूप फुरा है, सो क्या रूप है इसीका जो प्रकृति कर्म हुआ है, तिसीका नाम देवकारके कहते हैं, इन सर्वका बीज संवेदन है ॥ हे रामजी ! जो स्वतः पुरुष चिन्मात्र पद एकही था, जब तिसते विकारसंयुक्त उत्थान हुवा, तब आगे प्रपंच भासने लगा, बार जब उत्थानका अभाव हो, तब प्रपंचका भी अभाव हो जावै॥ हे रामजी ! जब यह कछु बनता है तब सर्व आपदा इसको प्राप्त होती हैं। जैसे सुई वस्त्रविषे प्रवेश करती है तिसके पाछे तागा भी चला जाता है।