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योगवासिष्ठ।

अग्निकी ज्वाला पडी जागती है, ऐसे मणि अरु रत्नका प्रकाश है, अरु बीज जो नीलमणि है, सो धूम्रके समान है, मानो धुआं पड़ा निकसता है, अरु सर्व रंगकी खान है, अरु जेते कछु संध्याके बादल लाल होते सो मानो इकडे आनि हुए हैं, मानो योगीश्वरके ब्रह्मरंध्रते अग्नि निकसि इकठ्ठी आय भई है, जठराग्नि इकट्ठी हुई है, मानो वडवाग्नि समुद्रते निकसिकरि मेघको ग्रहण करने निमित्त आनि स्थित भई है, महासुन्दर रचना बनी हुई है, फल अरु रत्नमणिसंयुक्त प्रकाशमान है, ऊपर गंगाका प्रवाह चला जाता है, सो यज्ञोपवीतरूप हुआ है, गंधर्व गीत गाते हैं, देवीके रहनेके स्थान हैं, हर्ष उपजावनेको महासुंदर लीलाका स्थान विधाताने रचा है, तिसको मैं देखत भया॥

इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भुशुंडोपाख्याने सुमेरुशिखरलीलावर्णनं नाम त्रयोदशः सर्ग ॥१३॥



चतुर्दशः सर्गः १४.

भुशुण्डदर्शनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! ऐसे शिखरके ऊपर कल्पवृक्षको मैं देखत भया, जो महासुन्दर फूलकरि पूर्ण रत्न अरु मणिके गुच्छे लगे, स्वर्णकी बल्ली लगी हुई है, अरु तारेसों दूने फूल दृष्टि आते हैं, अरु मेघके बादलते दूने पत्र दृष्टि आते हैं, सूर्यकी किरणोंते दूने त्रिवर्ग भासते हैं, बिजलीकी नाईं चमत्कार है, अरु पत्रपर देवता किन्नर अरु विद्याधर देवी आय बैठते हैं, अप्सरा आय नृत्य करती हैं, अरु गायन करती हैं, जैसे भँवरे गुंजारव करते फिरते हैं॥ हे रामजी। तहां रत्नके गुच्छे निरंध्र, अरु कलियां फूल भी निरंध्र, पत्र फल भी निरंध्र, मणिके गुच्छे निरंध्र, सब निरंध्रही दृष्टि आवै, अरु सब स्थान फूल फल गुच्छेकार पूर्ण, अरु षट्ऋतुके फूल फल तहां मिलते हैं, महाविचित्र रचना बनी हुई है, तिसके एक टासपर पक्षी बैठे हैं, सिंह बैठे खाते हैं, कहूं फूल फलादिक खाते हैं, कहूं ब्रह्माजीके हंस बैठे हैं कहूं अग्निके वाहन तोते बैठे हैं,अरु कहं अश्विनीकुमार अरु भगवतीके