पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७०

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भावनाप्रतिपादनोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६ .( १३५३ ) चार प्रकारके हैं, एक सूक्ष्म अर्थका, दूसरा परमार्थका, एक अल्प है, एक दीर्घ है, सो तीन कलंक इनविषे रहते हैं, एक संशय, एक प्रतियोग, एक भेद, यह तीनोंकलंक शब्दविषे रहते हैं, जैसे सूर्यको किरणविषेत्रसरेणु रहतेहैं,तैसे शब्दविषे कलंक रहते हैं, अरु जो पद मन अरु वाणीते अतीतहै, तौ कलंकित शब्द कैसे तिसका ग्रहण करे ॥हे रामजी । काष्ठमौन तिसको कहतेहैं. जहाँ न इंद्रियां कुरै, न मन फुरै, कोऊ ऊरणा न फुरै, सो कहिये काष्ठमौन, ऐसे पदको मैं वाणीकार कैसेकहौं, जेता कछु बोलना होताहै, सो सविकल्प होताहै, उस तेरे प्रश्नका उत्तर तूष्णीं है॥ राम उवाच ।। हे भगवन्तुम कहतेहौ,बोलना सविकल्प अरु प्रतियोगी सहित होता है, जो कछु ब्रह्मविषे दूषण है तिसका निषेधकारकैकहौ, मैं प्रतियोगीको न विचारौंगा ॥ वसिष्ठउ०॥हे रामजी । मैं चिदाकाशस्वरूप हौं, चैत्यते रहित चिन्मात्र हौं, अरु शतिरूप हौं, सम हौं, सर्व कलनाते रहित केवल आत्मातत्त्वमात्र हौं, अरु तू भी चिदाकाश है, सर्वं जगत् भी चिदाकाश हैं, अरु अहं त्वं कोऊ नहीं कहना, काहेते कि दूसरी सत्ता कोऊ नहीं, सब चिदाकाश है, अहे संवेदनते रहित शुद्धहै, जो सापेक्षिक अहं अहं फुरतीहै,अरु मोक्षकी भीइच्छा होवैतौ सिद्ध नहीं होती काहेते जो कंछु आपको मानकारै फुरती हैं, तौ एक अहंकारके कई अहंकार हो जाते हैं, यह अहें इसके गलेमें फांसी पड़तीहै, जब अर्हताते रहित होवै तब आत्मपदको प्राप्त होवै ॥ हे रामजी ! जब यह सबकी नई होजावे कछु अपनी अहंता अभिमान न फुरै. तब संसारसमुद्रके पारको प्राप्त होवै, अरु जब दैतसों मिलाहुआ जीता है, तबलग जन्ममरणके बंधनमें है, कदाचित् मुक्त नहीं होता, जैसे जन्मका अंध चित्रकी पुतलीको देखि नहीं सकता, तैसे अहंतासंयुक्त मुक्तिको नहीं प्राप्त होता. जब । अहंताका अभाव होवै, तब कल्याण होवै, स्वरूपके आगे अहंताही आवरण है । हे रामजी । जब यह चेतन हुआ फुरा तब इसको बंधन पड़ा, अरु जब जड़ अफ़र हो जावै तब कल्याण हुआ, जब चैतन्योन्मुखत्व होता है, तब इसका नाम पशु होता हैं, पशुका शरीर पाया, जब चैत्यते रहित शुद्ध चेतन प्रत्यकू आत्माविषे स्थित होता है, तब