पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७१

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- १ ३३५३ } योगवासिष्ठ । अनुष्यजन्म सफल होता हैं, यह मनुष्य जन्म पाय जो कछु पावना था सो पाया है हे रामजी ! जब मनुष्यजन्मको पायकार न जानेगा, तब अफ्र जसविछे जानना कहां हैं, यह संसार चित्तके ऊरणेकार उत्पन्न हुआ है, जब चित्त संसरणेते रहित होवै, तब केवल केवलीभावस्वरूप भलै,ज्ञानवानकी दृष्टिविषे अब भी कछु नहीं हुआ, केवल आत्मस्वरूपही भासता है, ऊरणाअफ़रणा दोनोंतिसको तुल्य दिखाई देते हैं, अंतःकरणचतुष्ट्य आत्मस्वरूप है, अरु अज्ञानीको भिन्न भिन्न भासते हैं, . इसीते चित्त आदिक जड़ हैं, अरु मिथ्या हैं, अरु आत्मस्वरूपकरिकै सब आत्मरूप हैं, आत्मा देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित है, ज्ञानीको सर्व आत्माही भासता है, भावे कैसी चेष्टा करै, वह लोक धन पुत्र सर्व ईणाते रहित है, न लोककी इच्छा करता है, जो लोक मुझको कछु अल है, अरू न पुत्र धन पानेकी इच्छा करता है, केवल आत्मअनुअक्रूपविछे स्थित है, अरु सबको अपना आप जानता ॥ हे रामजी । जिस पदको वह प्राप्त होता हैं, तिस पदको भेरी वाणी कह नहीं सकती। अनिर्वाच्य पद है, अरु जो पुरुष अहं ब्रह्म अस्मि कहता है, कि जो मैं ब्रह्म हौं, अरु बृह जगत् हैं, तब जानिये कि तिसको ज्ञान नहीं उपजा, तिसको शास्त्रश्रवणका अधिकार है, जैसे को कहै,मेरे हाथविषे दीपक हैं, अरू अंधकार भी मुझको दृष्ट आता हैं, तब जानिये कि, इसके हाथवघे दीपक नहीं, तैसे जलग जगत् भासता है, तबलग ज्ञान उपजा नहीं, इस जीवने निर्वाण हो जाना है, जब प्रत्यक् चेतनविषे स्थित हुआ, तब जड हो जावैगा, संसारकी भास कछु न रहैगी, ऐसी भी दृष्टि न रहैगी, कि मैं सम्यक हौं,केवल निर्वाण हो जावैगा ॥ हे रामजी । अव भी निर्वाणपद है, इतर हुआ कछु नहीं, किसकारकै किसको कौन उपदेश करै, केवल एकरस शून्य है, शून्य अरु आत्माविड़े भेद कछु नहीं अरु जो कछु भेद है, तिसको ज्ञानवान् जानते हैं, अरू बाकी गम नहीं, तिमविचे जो अनंत संवेदन फुरती है, तिसकार संसार फुरता है,अरु संवेदनहीकरि लीन होता है, जैसे पवनकार अग्नि प्रज्वलित होता है; अरु पवनही कार लीन होता है, तैसे संवेदन बहि,