पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७३

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(३३५४ ) । योगवासिष्ठ । अहंकार कर जगत् भासता है, अहंकारते रहित निर्विकार शतरूप होता जाता है, ऐसा जो निरहंकार आत्मपद है, तिसको पायकार ज्ञानवान् शोभता है, ऐसा शरत्कालका आकाश नहीं शोभता, अरु क्षीरसमुद्र भी ऐसा नहीं शोभता, अरु पूर्णमासीका चंद्रमा भी ऐसा नहीं शोभता, जैसा ज्ञानवान् पुरुष शोभता है । हे रामजी ! अहंताही इस पुरुषको मल है, जब अहंता नाश होवै, तब स्वरूपकी प्राप्ति होवै, अरु संसारके पदार्थकी जो भावना थी सो निवृत्त हो जाती हैं। काहेते कि, भ्रमकारकै उपजती थी, जो वस्तु भ्रमकारिकै उपजी होती है, सो भ्रमके अभाव हुए तिसका भी अभाव हो जाता है, जैसे आकाशविषे धुंएका बादल नानाप्रकारके आकार हो भासता है, अरु है नहीं, तैसे यह विश्व अनहोती भासती है, निचार कियेते रहती नहीं ॥ हेरामजी ! जबलग इसको संसारकी वासनाहै, तबग बंधहै,जब वासना निवृत्त हो जावै, तब आत्मपदकी प्राप्ति होवै अरु संपूर्ण कलना मिटिजावे, इंद्रियोंके इष्ट अनिष्टविषे तुल्य हो जावै, यद्यपि व्यवहार कर्ता है तो भी शतरूप है, जैसे शब्दको रागद्वेष नहीं फुरता, तैसे ज्ञानी निर्वाणपदको प्राप्त होता है, जिस निर्वाणविषे सत् असत् शब्द को नहीं केवल ब्रह्मस्वरूप है, ब्रह्म कहना भी वहीं नहीं रहता, केवल आत्मत्व मात्र है, अरु अद्वैत है । हे रामजी ! विश्वभी वहीरूप है, चेतन आकाश है, जैसी जैसी भावना होती है, तैसा२ चेतन होकार भासता है। जब जगत्की भावना होती है, तब नानाप्रकारके आकार दृष्ट आते हैं। अरु जब ब्रह्मकी भावना होती है, तब ब्रह्म भासता है, जैसे विषविषे अमृतकी भावना होती है, अरु विधिसंयुक्त खाते हैं, तब विषभी अमृत हो जाती है, अरु जो विधिविना खाइये तो मृतक होता है, तैसेजबइस संसारको विधिसंयुक्त देखिये, अर्थ यह जो विचारकरि देखियेतो ब्रह्मस्वरूप भासता है, अरु जो विचार विना देखिये तो जगतरूप भासताहै, सो विचार तब होता है, जब अहंकार निवृत्त होता है, अरु अहंकार आकाशविषे उपजाहै, अरु आकाश शून्यताविषउपजाहै, अरु शून्यता आत्माके प्रमादकार उपजी है, बार अहकारते जगत् हुआ है, अरु