पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७४

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निर्वाणयुक्त्युपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३५५) अहंकार मिथ्या है ॥ हे रामजी । शरीर आदिक चित्तपर्यंत विचार देखिये तो दृष्ट कहूं नहीं आते, इनविषै जो अहंप्रत्यय है सो भ्रममात्र है, जब तू विचार देखेगा, तब मरीचिकाके जलवत् भासैगा । हे रामजी । इस प्रपंचके त्यागनेविषे यत्न कछु नहीं, जैसे स्वप्नके पर्वतका त्यागना यत्न कछु नहीं, तैसे मिथ्या संसारके त्यागनेविषे यत्न कछु नहीं, बहुरि इसका निर्णय क्या कारये, जो इँही नहीं, जैसे बंध्याके पुत्रकी वाणी विचारिये कि सत्य कहता है, अथवा असत्य कहताहै, सो मिथ्या कल्पना है, वंध्याका पुत्र है नहीं तो तिसका विचार क्या करिथे, तैसे प्रपंच है नहीं, इसका निर्णय क्या कारये, ताते तुम ऐसे करो जैसे मैं कहता हौं, तब आत्मपदकी प्राप्ति होवै ॥ हे रामजी । ऐसी भावना करु कि न मैं हौं, न जगत् है, जब अहंकार न रहा तब कलना कहां होवे, इसका होनाही अनर्थ है, जब ऐसे विचार उत्पन्न होता है. तब भोगकी वासना क्षय हो जाती है, अरुसंतकी संगति होती है, अन्यथा भोगकी वासना नष्ट नहीं होती ॥ हे रामजी । जवलग इसको अर्हता उठती है, अर्थ यह कि दृश्य प्रकृतिसाथ मिलाप है, तबलग द्वैतभ्रम नहीं मिटता, जब अहेका उत्थान मिटि जावे, तब शुद्ध चिन्मात्र आत्मसत्ताही रहे ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे हँससंन्यासयोगो नाम शताधिकैकपंचाशत्तमः सर्गः ॥ १५१॥ शताधिकद्विपंचाशत्तमः सर्गः १५२. निर्वाणयुक्त्युपदेशवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी 1 जब अहंताका उत्थान होता है, तब स्वरूपका आवरण होता है, अरु जब अहंता मिटि जावै, तब स्वरूपकी प्राप्ति होती है, इस संसारका बीज अहंताही है, सो अहंकारही मिथ्या हैं, तिसका कार्य सत्य कैसे होवै, जो प्रपंच मिथ्या हुआ, तो पदार्थ कहाँते स होवे । हे रामजी! ऐसा जो ब्रह्म है, तिसकी युक्ति क्या हैं, जो संकल्पपुरुष भी असत्य है, अरु तिसको संशय भी मिथ्या है,