पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७५

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( १३५६ ) योगवासिष्ठ । अरु जिसप्रति प्रश्न करता है सो भी मिथ्या है, जैसे स्वप्नविषे द्वैतकलना होती है, सो असत् है, तैसे यह जगत् द्वैत भी असत्य है ॥ हे रामजी यह सब जगत् इसके अंतर स्थित है, अरु प्रमादकार बाहिर भासता है, यैहे अपनाही स्वप्न दृष्ट आता है, जो अंतरकी बाह्य सृष्टि भासती है, • ताते यह जगत् सब चिद्रूप है, इतर कछु नहीं, सो चेतनसत्ता आकाशते भी अतिसूक्ष्म है, अरु स्वच्छ है ॥ हे रामजी ! यह जगत् चित्तकार चेता है, ताते कहूँ हुआ नहीं; न किसीका नाश होता है, न उत्पन्न होता है, न किसीका कहूं जन्म है, न मृत्यु है, सर्व ब्रह्मही है ॥ हे रामजी जगत्के नाश हुए कछु नाश नहीं होता, काहेते कि हुआ कछु नहीं,जैसे स्वप्न पहाड नष्ट हुए, जैसे संकल्पपुर नष्ट हुए, जो कछु उपजे नहीं तो क्या नष्ट हुये तैसे यह जगहै,कछु हुआ नहीं,यह विचारकारदेखता। जो वस्तु अविचारते उपजी होवै सो विचारकार कैसे रहैं, जैसे जो पदार्थ तमते उपजा होवै, सो प्रकाश हुए कैसे रहै, तैसे यह जगत, अविचारकरि भासताहै, विचार करनेते नाश हो जाता है। हे रामजी ! यह जगत् संकल्पहीमात्र है,जैसे संकल्पनगर होताहै,तैसे यह संसार है,इसविषे कोऊ पदार्थ सत्य नहीं; ताते रूप अरु इंद्रियाँ अरु मनके अभावकी चितवना . करनी, यह संसार ऐसा है, जैसे समुद्रविषे चक्र नहीं है, जलही है, तिस विषे प्रीति भावना करनी अज्ञान है॥ हे रामजी ! एक ऐसेहैं,जो बाह्यते शतिरूप दृष्ट आते हैं, अरु अंतर इनके क्षोभ होता है, अरु एक ऐसेहैं, जो अंतरते शीतल हैं, बाह्य नानाप्रकारकी चेष्टा करते हैं, जिनके दोनों मिटि जाते हैं, सो मोक्षके भागी होते हैं, तिनके अंतर बाहर एकता होती है, जैसे समुद्रविषे घट भार राखिये, तिसके अंतर बाहर जल होता है। हे रामजी जिस पुरुषने-आत्माको ज्यों त्यों जाना है, तिसको न भये होता है, न शोक होता है, न मोह होता है, केवल स्वच्छरूप शांत आत्माविषे स्थित है, भय तब होता है, जब दूसरा भासता है, सो सर्व द्वैतका तिसके अभाव हो जाता है, अरु शतरूप होता है । हे रामजी ! सम्यकूदुर्शीको जगत् दुःख नहीं देता, अरू असम्यकुशीको दुःख देताहै, जैसे जेवरी होती है, जो जानता है, तिसको जेवरी भासती है, अरु