पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७७

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(१३५८) योगवासिष्ठ । विषे नहीं रहती, अरु सत्यता इसकार नहीं रहती, जो आत्माको साक्षा- - त्कार हुआ है, अरु जब आत्माको प्रमाद है, तब अर्हता उदय होती है अरु दृश्य भासती है, जैसे नेत्रके खोलनेकार दृश्यका ग्रहण करता है, जब नेत्र मुंदि लिये, तब दृश्यरूपका अभाव हो जाता है, तैसे जब अर्हता उदय होती है, तब दृश्य भी होती है, जब अहंता नष्ट भई, तब संसारका अभाव हो जाता है । हे रामजी ! अज्ञान किसका नाम है, सो सुन, अहंताका उदय होना, इसीका नाम अज्ञान है, अहंताकरिकै बंध है, अहंताते रहित मोक्ष है, आगे जो इच्छा होवे सो करहु ॥ हे रामजी ! देह इंद्रियादिक मृगतृष्णाके जलवत हैं, इनविषे अहंता करनी मूर्खता है, अरु ज्ञानवान अहंताको त्यागिकार आत्मपदविषे स्थित होता है, संसारके इष्ट अनिष्टविषे हर्ष शोक नहीं करता, जैसे आकाशविषे बादल हुए तो भी ज्योंका त्यों है, तैसे ज्ञानी ज्योंका त्यों है, इनविषे अहंकार नहीं, ताते सुखरूप है । हे रामजी ! रूप दृश्य अरु इंद्रियां अरु मन उसके जाते रहते हैं, जैसे वंध्याके पुत्रकी नृत्य नहीं होती, तैसे ज्ञानीके रूप अवलोकन नमस्कार नष्ट हो गये हैं, काहेते जो सर्व ब्रह्म तिसको भासता है, द्वैतभावना नष्ट हो गई है, अरु संसारका बीज अहंता ज्ञनीविषे दृढ है । हे रामजी ! अहंताकरिके इसकी बुद्धि बुरी हो गई है, अर्थ यह कि स्थूल हो गई है, ताते दुःख पाता है, इस दुःखके नाशका उपाय कहता हौं तू सुन, कि संतजनके वचनोंविषे भावना करनी, अरु विचार कारकै हृदय विषे धारणी, इसकार अर्हता रूपी दुःख नष्ट हो जाता है, अरु संतके वचनोंका निषेध करना इसको मुक्तिफलके नाश करनेहारा है, अरु अहंतारूपी वैतालके उपजानेहारा है, ताते संतकी शरणको प्राप्त हो, अहंताको दूर करहु, इसविषे खेद कछु नहीं, यह अपने आधीन हैं, अपनाअभाव चितवना इसविषे क्या खेद है ॥ हे रामजी ! संतकी संगतिद्वारा इसको बहुत सुगम होता है, जो ज्ञानवान होवें, इनकी पृथक् पृथक् सेवा करनी, अरु बुद्धिको बढावनी, तिनके वाक्य श्रवण कारकै वचनोंको इकट्ठा करना, अरु विचार करके बुद्धिको तीक्ष्ण करनी, बुद्धि जब तीक्ष्ण होवैगी तब अहंतारूपी