पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७८

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शाँतिस्थितियोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३५९); विषकी वल्लीका नाश करेगी, यह विचार करिये कि मैं कौन हौं, यह जगत क्या है, जब ऐसा विचार करेगा संत अरु शास्त्रोंके वचनोंकरि निर्णय कियेते सत् है सो सत् होता है, अरु असत् है, सो असत् हो जाता है, सत् जानकार आत्माकी भावना करनी, अरु असत् जगत् सृगतृष्णाके जलवत् जानिकार भावना त्यागनी, जिनको सुख जानकार पानेकी भावना करता था, सो दुःवदाई भासते हैं, जैसे मरुस्थलविषे जल जानकरि मृग दौडता है, तौ दुःख पाता है, अधिष्ठानके अज्ञानकारकै, तैसे अधिष्ठान सबका आत्मतत्त्व है, सो शुद्धरूप परम शांत परमानंदस्वरूप है, जिसको पायकार बहुरि दुःखी न होवै ॥ हे रामजी । इसको बंधनका कारण भोगकी वासना है, सो भोगकर शांति नहीं होती, जब सन्तकी संगति होती है, तब इसका कल्याण होता है, अनात्माविषे अहंभाव छूट जाता है, अपर प्रकार शांति नहीं होती । है रामजी ! बालककी नाई हमारे वचन नहीं, हमारा कहना यथार्थ है काहेते जो स्वरूपका भान हमको स्पष्ट है, जब इसकी अहंता मिटि जावै, तब सुखी होवै, ताते अहंताका नाश करहु, अहंता नाश हुई तब जानिये जो चैत्यकी भावना मिटि जाती है। हे रामजी । जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय होता है, तब अहंतारूपी अंधकार नष्ट हो जाता हैं, अरु ज्ञान तब होता है, जब संतका विचार प्राप्त होवै विषयते वैराग्य होवै अरु स्वरूपका अभ्यास करें इसीकर स्वरूपकी प्राप्ति होती है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे निवणयुक्त्युपदेशवर्णनं नाम शताधिकद्विपंचाशत्तमः सर्गः ॥ १९२ ॥ शताधिकत्रिपंचाशत्तमः सर्गः १५३. शांतिस्थितियोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जिन पुरुषोंने अपना अज्ञान नाश नहीं किया, ज्ञानकारकै तिनने कछु करने योग्य नहीं किया, अज्ञानकरिकै इसको अहंभावना होती है, तब आगे जगत् भासता है अरु लोक परलोककी भावना करता है, इसी वासनाकार जन्म मरणको पाता