पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४८३

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(१३६४) थौगवासिष्ठ । जाता है, तब नहीं भासता, तैसे चित्त चैत्यशक्तिका चमत्कार है, जब फुरता है, तब विश्व भासता है, तो भी चिद्धन है, जब ठहर जाता है, तब विश्व नहीं भासता, परंतु आत्मा सदा एकरस है, जैसे जलविषे तरंग होते हैं, जैसे सुवर्णविषे भूषण होते हैं, सो इतर कछु हुआ नहीं, तैसे आत्माविषे विश्व इतर कछु हुआ नहीं आत्मस्वरूप है, ज्ञप्ति भी ब्रह्म हैं, अरु ज्ञप्तिविषे कुरा विश्व भी ब्रह्म है, विधिनिषेध अरु हर्ष शोक किसका करिये, सर्व वही है । हे रामजी ! संकल्पको स्थित करिकै देख जो सब तेराही स्वरूप है, जैसे पुरुष शयन करता है, उसको स्वप्नसृष्टि भासती है, जब जागता है, तब देखता है, सब मेराही स्वरूप है तैसे जाग्रत विश्व भी तेरा स्परूप है, जैसे समुद्रविषे तरंग उठते हैं, सो जलरूप हैं, तैसे विश्व आत्मस्वरूप है, जैसे चितेरा काष्ठविषे कल्पता है, कि एती पुतलियां निकलैंगी, अरु जैसे मृत्तिकाविषे कुंभार घटादिक कल्पता है, कि एते पात्र बनेंगे, काष्ठ भृत्तिकाविषे तौ कछु नहीं ज्योंका त्यों काष्ठ हैं, अरु ज्योंकी त्यों मृत्तिका है, परंतु उनके मनविषे आकारकी कल्पना है, तैसे आत्माविषे संसाररूपी पुतलियां मन कल्पता है, जब मनका संकल्प निवृत्त हो जावै, तब ज्योंका त्यों आत्मपद भासै, जैसे तरंग जलरूप हैं, जिसको जलका ज्ञान है, सो तरंग भी जलरूप जानता है, अरु जिसको जलका ज्ञान नहीं, सो भिन्न भिन्न तरंगके आकार देखता है, तैसे जब निःसंकल्प होकार स्वरूपको देखै, तब ऊरणेविषे भी आत्मसत्ता भासैगी, अहं त्वं आदिक सब जगत् ब्रह्मस्वरूपही है, तौ भ्रम कैसे होवे, अरु किस्को होवै, सब विश्व आत्मस्वरूप है, सो आत्मा निरालंब है, आलंबरूप जो चैत्य है, अहंकार, तिसते रहित है, केवल आकाशरूप है, जब तू तिसविषे.स्थित होवैगा, तब नानाप्रकारकी भावना मिटि जावैगी, नानाप्रकारकी भावना जगविषे फुरती है, अरु जगत्का बीज अहंता है, जब अहंता नाश होवै, तब जगत्का भी अभाव हो जावैगा । हे रामजी ! अर्हताका कुरणाही बंधन हैं, अरु 'निरहंकार होना मोक्ष हैं, एक चित्तबोध है, अरु एक ब्रह्मबोध है, चित्तबोध जगत है, अरु ब्रह्मबोध मोक्ष है, चित्तबोध अहंताका नाम है,