पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४८६

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परमार्थयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३६७) रिकै इसकी विपर्ययदृष्टि हुई है, इसका वास्तव स्वरूप निर्विकार है, जो जायते अस्ति वर्धते विपरिणमते अपक्षीयते नश्यति इन षद् विकारोंते रहित हैं, ताते निर्विकार है, तिसको विकारी जानता है, आत्मा निर्विकार निराकार है,तिसको साकार जानताहै,आत्माआनंदरूप है,तिसको दुःखी जानता है, आत्मा शाँतरूप है, तिसको अशाँत जानता है,आत्मा महत् है, तिसको लघु जानता हैं, आत्मा पुरातन हैं, तिसको उपजा मानता है, आत्मा सर्वव्यापक है, तिसको परिच्छिन्न मानता है, आत्मानित्य है, तिसको अनित्य देखता है, आत्मा चैत्यतेरहित शुद्ध चिन्मात्र है, यह चैत्यसंयुक्त देखता है, आत्मा चेतन हैं, यह जड देखता हैं. आत्मा अहेते रहित सदा अपने स्वभावविवे स्थित है, यह अनात्म अहंकारविषे अहंप्रनीति करता है, आत्माविषे अनात्मभावना करता है, अरु अनात्मविषे आत्मभावना करता है, आत्मा निरवयव है, तिसको अवयवी देखता है, आत्मा अक्रिय हैं, तिसको सक्रिय देखताहै, आत्मा निरंश है, तिसको अंशांशीभावकार देखता है, आत्मामय हैं, तिसको रोगी देखता है, आत्मा निष्कलंक है, तिसको कलंकसहित देखता है, आत्मा सदा प्रत्यक्ष है, तिसको परोक्ष जानता है, अरु जो परोक्षहै, तिसको प्रत्यक्ष जानताहै।। हे रामजी ! इत्यादिक जो विकार, सो आत्माविषे अज्ञानकरिके देखता है,आत्मा शुद्ध है, अरु सूक्ष्मते सूक्ष्म है, अरु स्थूलते स्थूल है, अरु बड़ेते बडाहै, लघुते लघुभी है, सर्वशब्द अरु अर्थका अधिष्ठानहै॥हे रामजी! ब्रह्मरूपी एक डबा है,तिसविषे जगतुरूपी रत्न हैं, पर्वत अरु वनसहित भी जगत्कृष्ट आताहै,परंतु आत्माके निकट रुईके लोम जैसा लघुहै, आत्मरूपी वनहै, तिसविषे संसाररूपी मंजरी उपजी है, सो कैसी मंजरी है, पांच तत्त्व पृथ्वी अप तेज वायु. आकाश इसके पत्र हैं, तिनकरिकै शोभती हैं, सो अनाके उदय हुए उदय होती है, अरु अहंताके नाश हुए नाश होती है, अरु आत्मरूपी समुद्र है, तिसविषे जगरूपी तरंग हैं, सो उठते भी हैं, अरु लीन भी होजाते हैं, अरु आत्माकाशविषे संसार भ्रममाव है,आकाश वृक्षकी नई है, आत्माके प्रमादकर भासताहै। हे रामजी ! मायारूपी चन्द्रमा तिसकी