पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४८७

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११३६८) योगवासिष्ठ । किरणें जगत् है, अरु नेति शक्ति नृत्य करनेहारी है, सो तीनों अविचारसिद्ध हैं, विचार कियेते शांत हो जाते हैं, जैसे दीपक हाथविषे लेकर अंधकार देखिये तौ हृष्ट नहीं आता तैसे विचारकरि देखिये तौ जगत्का अभाव हो जाता है,केवल शुद्ध आत्माही प्रत्यक्ष भासता है । हे रामजी। जगत् कछु बना नहीं, जैसे किसीने बरफ कही, किसीने शीतलता कही तिसविषे भेद कछुनहीं, तैसे आत्मा अरु जगतविषे भेद कछु नहीं, अरु भेद जो भासता है, सो भ्रममात्र हैं, जैसे ततु अरु पटेविषे भेद कछु नहीं, तैसे आत्मा अरु जगविषे भेद् कछुनहीं॥हे रामजी! आत्मरूपी रंगविषे जगतरूपी चित्र पुतलियां हैं, अरु आत्मारूपी समुद्रविषेजगरूपीतरंग हैं, सो जलरूप हैं, तैसे आत्माअरु जगविषे भेद कछु नहीं, आत्मपही है, आत्माते इतर कछु बना नहीं, जिसकरि सर्व पदार्थ सिद्ध होते हैं, अरुजिसकरि सर्व क्रिया सिद्ध होती हैं, जो अनुभवरूप सदाअप्रौढ हैं, तिसको प्रौढ जानना यही मूर्खता है। हे रामजी! यह विश्व तेराही स्वरूप हैं; तू जागिकार देख तूही खड़ा हैं, अरु स्वच्छ आकाश सूक्ष्म प्रत्यक् ज्योति अपने आपविष स्थित हैं ॥इतिश्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमार्थयोगोपदेशो नाम शताधिकपंचपंचाशत्तमः सर्गः ॥१५॥ शताधिकषट्पंचाशत्तमः सर्गः १५६. इच्छानिषेधयोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! रूप अवलोकन मनस्कार यह तीनों संसार हैं, सो ज्ञानवान्को भ्रममात्र भासते हैं, वास्तव कछु नहीं मिथ्या हैं, जैसे जलविषे लहरी तरंग उठते हैं, सो जलरूप हैं,तैसे आत्माविषे रूप अवलोकन मनस्कार फुरते हैं, सौ सब आत्मरूप हैं, इतर कछु नहीं ॥ हे रामजी ! यह शुद्ध परमात्माकाचमत्कार है,अरुआत्मा दृश्यते रहित है, शुद्ध हैं, चिन्मात्र हैं, निर्मल हैं, अद्वैत है, तिसविषे जगत् कछु बना नहीं, हमको तौ सदा वही भासता है, जगत् कछु नहीं भासता, जैसे कोङ आकाशविषे नगर कल्पता, अरु सब रचना तिसविष देखता सो