पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१३७० ) .. योगवासिष्ठ । रूप होता है, बहुरि इसको शांतिके निमित्त कर्त्तव्य कछु नहीं रहता है। हे रामजी ! हम तौ निरिच्छित हैं, हमको अंतर बाहर शांति है, हमको कर्तव्य करने योग्य कछु नहीं, जो कछु प्रारब्ध तिसकार चेष्टा होती है, रागद्वेषते रहित बोलते हैं, परंतु बाँसुरीकी नई जैसे बाँसुरी बोलती हैं, अहंकारते रहित, तैसे ज्ञानवान् अहंकारते रहित हैं, अरु स्वादको ग्रहण करते हैं, परंतु कड़छीकी नाईं जैसे कड़छीको सर्व व्यंजनविषे पता है, अरु तिसी द्वारा सब निकास पाते हैं, परंतु उसको राग द्वेष कछु नहीं फुरता, जो यह होवै, यह न होवे, तैसे ज्ञानवान् अनिच्छितही स्वादको लेता है, अरु गंध भी पवनकी नाई, लेता है जैसे पवन भली बुरी गंधको लेता है, परंतु रागद्वेषते रहित है, तैसे ज्ञानवान् रागद्वेषकी संवेदनते रहित गंधको लेता है, इसीप्रकार सर्व इंद्रियोंकी चेष्टा करता है, परंतु इच्छाते रहित होता है, इसीते परम सुखरूप है, अरु जिसकी चेष्टा इच्छासहित है, सो परम दुःखी है ॥ हे रामजी । जिस पुरुषको भोग रस नहीं देते सो सुखी हैं, अरु जिसको रस देते हैं, रोगकार तृष्णा बढती जाती है, तिसको ऐसे जान जैसे किसीके मस्तक ऊपर अग्नि लगै, तिसके ऊपर बुझानेके निमित्त तृण डारे,तब वह बुझती नहीं बढ़ती जाती है, तैसे विषयकी इच्छा भोगनेकार तृप्त नहीं होनेकी,सो इच्छाही बंधनहै। इच्छाकी निवृत्तिका नाम मोक्ष है । हे रामजी । संसाररूपी विषका वृक्ष है, तिसका बीज इच्छाहै जिसकी इच्छा बढ़तीजातीहै,तिसका संसार बढता जाता हैं, तिसकार वारंवार जन्म अरु मृतक होता है । हे रामजी! ऐसा सुख ब्रह्माके लोकविषे भी नहीं, जैसा सुख इच्छाकी निवृत्तिविष है,ऐसा दुःख नरकविषे भीनहीं, जैसा दुःख इच्छाके उपजानेविषे है, इच्छाके नाशका नाम मोक्ष है, अरु इच्छाके उपजनेका नाम बंधन है, जिस पुरुषको इच्छा उत्पन्न होती है, सो दुःखको पाता है, संसाररूपी गर्त ( खात)विषे पड़ता है, अरु इच्छारूपी विषकी वल्ली,तिसुकोसमातारूपी अश्किार जलावहु, सम्यक् दर्शनकारि जलाए विना बड़े दुःखको प्राप्त करैगी, अरु बढ़ि जावैगी ॥ हे रामजी । जिस पुरुषने इच्छा दूर करनेका उपाय नहीं किया, तिसने अंधे कूपविषे प्रवेश किया है, शास्त्रका श्रवण