पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४९०

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जगदुपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३७१ ) भी इसी निमित्त है, जो किसीप्रकार इच्छा निवृत्त होवे, अरु तप दान यज्ञ भी इसी निमित्त है,जो किसी प्रकार इच्छानिवृत्त होवै, जो एकही वार निवृत्त कर न सकिये, तौ क्षण क्षण निवृत्त कारये ॥ हे रामजी ! यह विषकी वल्ली बढी हुई दुःख देती है, जो पुरुष शास्त्रोंको पढ़ता भी है, अरु इच्छाको बढावता भी है, सो दीपक हाथलेकर कूपविषे गिरताहै अरु इच्छारूपी कंटिआरीका बूटा है, जिसमें सर्वदा कंटक लगे रहते हैं। तिसविषे सुख कदाचित् नहीं, जो पुरुष काटेकी शय्यापर शयन करें; अरु सुखी हुआ चाहैं तो नहीं होता, तैसे असारकारि कोऊ सुख पाया चाहे तो कदाचित् नहीं होवैगा, जिसकार इच्छा निवृत्त होवै सोई उपाय किया चाहिये, इच्छाके निवृत्त होनेविषे सुख है; अरु इच्छाके उत्पन्न होनेविषे बड़ा दुःख है॥ हे रामजी! जो अनिच्छितपदविषे स्थित हुआ है,तिसको जब एक क्षण भी इच्छा उपजती है, तब रुदन करताहै,जैसे चोरते लूटा रुदन करता है, तैसे वह रुदन अरु पश्चात्ताप करता है,अरु तिसके नाश करनेका उपाय करता है । हे रामजी | इच्छारूपी क्षेत्र है, अरु रागद्वेषरूपी तिसविषे विषकी वल्ली है, जो पुरुष तिसके दूर करनेका उपाय नहीं करता, सो मनुष्यविषे पशु है, यह इच्छारूपी विषका वृक्ष बढा हुआ नाशका कारण हैं, ताते तुम इसका नाश करहु ॥ इति श्रीयो० निर्वाणप्रकरण इच्छानिषेधयोगोपदेशो नाम शताधिकषपंचाशत्तमः सर्गः ॥ १६६॥ शताधिकसप्तपंचाशत्तमः सर्गः १५७, जगदुपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इच्छारूपी विषयके नाश करनेका उपाय तुमको आगे भी कहा है, अब बहुरि स्पष्ट कर कहता हौं, तू श्रवण करु, इच्छाके त्याग करने योग्य संसार है, सो मिथ्या है, आत्मसत्ता भिन्न कारये तो मिथ्या है, जो मिथ्या हुआ तौ तिसविषे इच्छा करनी क्या है, अरु जो आत्माकी ओर देखिये तो सर्व आत्माही है,