पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४९२

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- जगदुपदेशवर्णन-निवणप्रकरण ६. (१३७३) होता है, अरुसीपीविषे रूपा भासता है, सो दूसरी कछु वस्तु नहीं, अधिष्ठान किरणें अरु सीपी हैं, तैसे अधिष्ठानरूप परमार्थसत्ताही है, न सुख हैं, न दुःख है, केवल यह जगशिवरूप, तिस शिव चिन्माते मृत्तिकाकी सेनावत्, अन्य कछु नहीं तौ इच्छा कैसे उदय होवे ॥ राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर | जो सर्व ब्रह्मही है तो इच्छा अनिच्छा भी भिन्न नहीं, इच्छा उदय होवे, भावै, न होवे बहार तुम कैसे कहत हौ कि इच्छाका त्याग करहु १ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जिस पुरुषकी ज्ञप्ति जागी है, अर्थ यह कि, ज्ञानरूप आत्माविष जागा है, तिसको सर्व ब्रह्मही है, इच्छा अनिच्छा दोनों तुल्य हैं, इच्छा भी ब्रह्म है, अनिच्छा भी ब्रह्म है । हे रामजी ! ज्यों ज्यों ज्ञानसंवित होती है, क्यों त्यों वासना क्षय होती है, जैसे सूर्यके उदय भए रात्रि नष्ट हो जाती है, तैसे ज्ञानके उपजेते वासना नहीं रहती ॥ हे रामजी ! ज्ञानवान्को ग्रहण त्यागकी इच्छा कर्तव्य नहीं, इच्छा अनिच्छा तिसको तुल्य हैं, यद्यपि ऐसेही है, परंतु स्वाभाविकही वासना तिसको नहीं रहती; जैसे सूर्यके उदय हुए अन्धकार नहीं रहता, तैसे आत्माके साक्षात्कार हुए द्वैतवासुना नहीं रहती; ज्यों ज्यों ज्ञानकला जागती है, त्यों त्यों द्वैत नाश - हो जाता है, द्वैतके निवृत्त होनेकार वासना भी निवृत्त हो जाती है। हे रामजी ! ज्यों ज्यों स्वरूपानंद इसको प्राप्त होता है, क्यों त्यों संसार विरस होता जाता है, जब संसार विरस हो गया, तब वासना किसकी करै । हे रामजी! अमृतविषे इसको विषकी भावना भई थी, तब अमृत विष भासता था, जब विषकी भावनाका त्याग किया, तब अमृत तौ आगेही था, सोई हो जाता है, तैसे जो कछु तुझको भासता है, सो सब ब्रह्मरूपी अमृतही है, जब तिस ब्रह्मरूपी अमुँतविषे अज्ञानकारकै जगतरूपी विषकी भावना हुई, तब दुःखको पाता है, अह जब संसारकी भावना त्यागी, तब आनंदरूपी है, तिसको करना न करना दोनों तुल्य हैं। यद्यपि ज्ञानवान् विषे इच्छा दृष्ट आती है, तो भी उसके निश्चयविषे नहीं, उसकी इच्छा भी अनिच्छा है; काहेते जो संसारकी भावना उसके हृदयविषे नहीं, तो इच्छा किसकी रहै, हे रामजी !