पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

जगदुपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३७५) सो हैही नहीं, तैसे मूर्खताकारकै आत्माविषे संसार कल्पता है, तिसी कार दुःखी होता है । हे रामजी । स्थावर जंगम जेता कछु जगत् भासता है, सो सब ब्रह्मरूप है ब्रह्मते इतर बना कछु नहीं, भ्रमकारकै भिन्न भिन्न होय भासता है, जैसे आकाशविषे शून्यता है, जलविर्षे द्वता है, सत्यताविषे सत्यताही है, तैसे आत्माविषे जगत् है, सो न सत् है, न असत् है, अनिर्वाच्य है । हे रामजी ! दूसरा कछु बना नहीं तो क्या कहिये, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, सो सर्वका अपना आप वास्तवरूप है, जब तिसका साक्षात्कार होता है, तब अहंरूप भ्रम मिटि जाता है, जैसे सूर्यके उदय हुए अंधकारका अभाव हो जाता है, तैसे आत्माके साक्षात्कार हुए अनात्म अभिमान रूपी अंधकारका अभाव हो जाता है, अरु परम निर्वाण भासता है, तिस विषे तहाँ एक कहना हैन दोकहनाहै केवल, शतरूप परम शिव है, जैसे आकाशविषे नीलता भासती है, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है ॥ हे रामजी । जिनने ऐसे निश्चय किया है, तिनको इच्छा अनिच्छा दोनों तुल्य हैं, तो भी मेरे निश्चयवि यह है, जो इच्छाके त्यागविषे सुख है, जिसकी इच्छा दिनदिन घटती जावै अरु आत्माकी ओरआवै,तिसको ज्ञानवान् मोक्षभागी कहते हैं, काहेते जो संसार भ्रमकारकै सिद्ध है, इसहीकी कल्पना जगतरूप होकर भासती है। विचार कियेते. निकसता कछु नहीं, संसारके उदय होनेकर आत्माको कछु आनंद नहीं, अरु नाश होनेकार कछु खेद नहीं होता, काहेते कि, भिन्न कछु नहीं जैसे समुद्रविषे तरंग उपजते विनशते हैं, तौ जलको हर्ष शोक कछु नहीं होता, काहेते कि, जलते इतर नहीं, तैसे संपूर्ण जगत् ब्रह्मस्वरूप है। तौ इच्छा क्या अरु अनिच्छा क्या हेरामजीआदि जो परमात्मातेचित्तशक्ति फुरी है, तिसविषे जब अहं ऐसे हुआ, तब स्वरूपका प्रमाद हुआ तब यह चित्तशक्ति मनरूप हुई बहुरि आगे देह इंद्रियां हुईं, अज्ञानकारकै मिथ्या भ्रम उदय हुआ है,इसीप्रकार अपने साथमिथ्या शरीरकोदेखता है, जैसे जल हैढ जडताकारकै बरफरूप होजाता है, तैसे चित्तसंवित प्रमाकी दृढताकारकै मन इंद्रियां देहरूप होती हैं, जैसे को स्वग्नविषे