पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४९६

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जगदुपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (,१३७७ } सिद्धका संकल्प उलटता है, तब पर्वत भी आकाशरूप हो भासता हैं, जैसे स्वप्नविषे संकल्प फुरता है, तब अनुभवविषे पर्वत आदिक पदार्थ भास आते हैं, अरु जब संकल्पते जागताहै, तब स्वप्नके पर्वत आकाशरूप हो जाते है, आकाशही पर्वतरूप हुआ अरु पर्वत आकाशरूप होताहै ।। हेरामजी! तैसे यह सृष्टिसंकल्पमात्र है,कछु बना नहीं,जैसा संकल्प होताहै। तैसा भासताहै अरु जब विश्वके अत्यंत अभावका संकल्प किया तब तैसेही भासताहे जैसे विश्वका अभ्यास किया,अरु विश्व भासीहै, तैसेआत्माका अभ्यास कारये तो क्यों न भासै, वह तो अपना आप है, जब आत्माका अभ्यास करिये तब आत्माही भासता है, विश्वका अभाव हो जाता है, अनेक सृष्टि अपने अपने संकल्पकार आकाशविषे भासती हैं, जैसा किसीका संकल्प होता है, तैसी सृष्टि उसको भासती है, जैसे चिंतामणि अरु कल्पवृक्षविषे दृढ संकल्प करता है, तब यथा इच्छित पदार्थ निकसि आते हैं, सो कछु बने नहीं, अरु चितामणि भी परिणामको प्राप्त भई ज्योंकी त्यों पडी है, संकल्पकी दृढताकार भासि आते हैं, तैसे यह प्रपंचभी आकाशरूप है, जैसे आकाशविषे शून्यता हैं, तैसे आत्माविषे जगत है । हे रामजी । सिद्धके जो वचन फुरते हैं, सोही संकल्पकी तीव्रता होती है, जोचित्त शुद्ध होता है,तो दूसरी सृष्टिको भी जानता है, जो पुरुष वचनसिद्ध होनेके निमित्त सूक्ष्म वासना करता है, अर्थ यह कि, वासनाको रोकता है, सो तिसकार वचनसिद्धताको पाता है, जैसा संकल्प करता है, तैसा सिद्ध होता हैं । हे रामजी । जेता यह दृश्यकी ओरते उपरांत होकर अंतर्मुख होता है, तेती वचनसिद्धता होती जाती है, भावैवर देवै भावै शाप देवे, वह सिद्ध होताहै । हे रामजी ! एक प्रमाण ज्ञान है, जो यह पदार्थ इसप्रकार हैं, तिसका जो नामरूप है, सो सब आकाशरूप भ्रममात्र है, आत्माविपे अपर कछु नहीं अरु आत्मरूपी समुद्रविषे जगत् रूपी तरंग उठते हैं, सो आत्मरूपी हैं, जिनको ऐसा ज्ञान हुआ है, तिनको इच्छा अरु अनिच्छाका ज्ञान नहीं रहता, तिनको सब आकाशरूप भासता है ॥ हे रामजी ! आत्मरूपी फूल है, तिसविषे जगतरूपी गंध है, जैसे पवन अरु स्पंदविषे भेद नहीं, 49