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भुशुण्डोपाख्यानेऽस्ताचललाभवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

मुझको कहा. तब मैं कहत भया॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे पक्षीके महाराज! जो कछु तुमने कहा है सो सत्य कहा है, मैं अभ्यागत तेरे आश्रम इस निमित्तआया हौं, कि चिरंजीवीकी कथा चली थी, सो तू मुझको शीतल चित्त दृष्टि आता है, अरु कुशलमूर्ति है, अरु संसाररूपी जालते निकसा हुआ दृष्ट आता है, ताते मेरे संशयको दूर करु कि किस कालविषे तू जन्मा है, अरु ज्ञातज्ञेय कैसे हुआ है, अश्तेरी आयु कितनी है. अरु कौन कौन वृत्तांत तेरा देखा हुआ स्मरण है, अरु किस कारण तहां निवास किया है॥ भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर जो कछु तुमने पूछाहै, सो सर्वही कहता हौं, शनैः शनैः तुम श्रवण करो, तुम जो हौ सो साक्षात् प्रभु त्रिलोकीके पूज्य हौ, अरु त्रिकालदर्शी हौ, परंतु जो कछु तुमने आज्ञा करी है, सो मानने योग्य है. तुम सारखे महात्मा पुरुष मानने योग्य हैं, तुम सारखे जो महात्मा पुरुष हैं, तिनके विद्यमान कहे हुए भी अपने विषे जो कछु तप्तता होती है, सो निवृत्त हो जाती है, जैसे मेघके आगे आये हुए सूर्यकी तप्तता मिटि जातीहै, तैसे तुम्हारे आगे कहनेकरितप्तता निवृत्त हो जाती है॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भुशुण्डसमागमवर्णनं नाम पंचदशः सर्गः ॥१५॥



षोडशः सर्गः १६.

भुशुण्डोपाख्यानेऽस्ताचललाभवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! ऐसे कहकर भुशुण्ड मुझको कहत भया, कैसा भुशुण्ड है, सर्वज्ञ अरु सुंदर अरु समतासंयुक्त है, सो स्निग्ध अरु गंभीर वाणीकार कहत भया, जिसने ताकडीविषे ब्रह्मांड तोलि छोडाहै, अरु जगत् जिसको तृणकी नाई तुच्छ भासता है. काहेते कि, लोककी उत्पत्ति अरु प्रलय उसने बहुत देखी है, अरु चित्तकी वृत्ति किसीविषे लगाई नहीं जैसे क्षीरसमुद्रते निकसा मंदाराचल परिपूर्ण समशुद्ध है, तेसे उसका मन शुद्धहै, जैसे क्षीरसमुद्र उज्ज्वल है, तैसै वह आत्मपदविषे विश्राम पायकरि आनंदसों पूर्ण है अरु जगत‍्के उत्पत्ति-विनाश जिसने