पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५००

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वसिष्ठगीतोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१३८१ ) म्वाद नहीं देती, आकाशकी नाई रहता है, तिसको संत मुक्तरूप कहते है ॥ हे रामजी । यह अहं अविचारते सत् भासती है, विचार कियेते असत्य हो जाती है, अनहोती अहंताने दुःख दिया है, ताते तुम निरहेकार चेष्टा करहु, जैसे यंत्रीकी पुतली अभिमानते रहित चेष्टा करती हैं, तैसे तुम निरहंकार होकार चेष्टा करहु, अरु अपने स्वरूपविषे स्थित हो, तब व्यवहार अरु अव्यवहार तुझको तुल्य हो जावैगा, जैसे पवनको स्पंद दोनों तुल्य होते हैं, तैसे तुमको होवैगा, अरु अहंकारते रहित तेरी चेष्टा होवैगी, अहंताही दुःख है, जब अर्हताका नाश हुआ, तब शांतपको प्राप्त होवैगा, अरु निर्मल अनामय पदको प्राप्त होवैगा, जो सर्व पदार्थका अधिष्ठान है, अरु सबका अपना आप है, तिसविषे न कोऊ सुख है, न दुःख है, न कोङ इंद्रियों का विषय है, परमशांतरूप है ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमनिर्वाणयोगोपदेशवर्णनं नाम शताधिकाएपंचाशत्तमः सर्गः ॥ १८ ॥ शताधिकैकौनषष्टितमः सर्गः १५९. - -- ---


- वसिष्ठगीतोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हेरामजी! जो ज्ञानवान् पुरुष है सो निरावरण, दोनों । आवरणते रहित हैं, एक असत्त्वापादक आवरण है, एक अभानापादक आवरण है, जो आत्मब्रह्मकी सत्यता हृदयविषे न भासै सो असत्त्वापादक, तिसको कहता है कि, है नहीं, अरु जो सत्यता आत्माकी हृदयविषे भासे, परंतु दृढ प्रत्यक्ष न भासै सो अभानापादक आवरण है, असत्त्वापादक आवरण अज्ञानीको भासता है, अरु अभानापादक आवरण जिज्ञासीको होताहै, ज्ञानवान्को यह दोनों आवरण नहीं रहते, ताते वह निराकरण शांतरूप होता है, आकाशवतु निर्मल अरु निरालंब है, सो किसी गुणतत्त्वके आश्रय नहीं होता, अरु एक द्वैतभ्रम तिसका नष्ट होजाता है; तिसने आत्मारूपी तीर्थका स्नान किया है, सो आत्मरूपीतेर्थिं कैसा है, जो अपवित्रको भी पवित्र करता है, जिन पुरुषोंने