पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५०२

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वसिष्ठगीतोपदेशवर्णन-निर्वाणकरण ६. (१३८३) अपना स्वरूप होता है, निद्रादोष कारकै बाह्य भासती है, जब जागता है, तब अपनाही स्वरूप भासता है, तेसै जाग्रत् सृष्टि भी विचार कियेते अपने अनुभवविषे भासती हैं, ताते स्थित होकर देख, जो सर्वदा जागती ज्योति है, तिसको त्यागिकार अपर यत्न करना व्यर्थ है ॥ हे रामजी । अपने अनुभवविषे स्थित होना क्या कष्ट है, अरु जो कठिन जानते हैं, सो मूढ़ हैं, तिनको मेरा धिक्कार है, काहेते जो गऊके पगको समुद्रवत् जानते हैं, तिनते अपर सूखे कौन है, अनुभवविषे स्थित होना, गऊपगकी नईही तरणा सुगम है, अरु जो अपर पदार्थ हैं, जिनके पानेकी इच्छा करेगा, तिनविषे व्यवधान है, अरु आत्माविषे व्यवधान कछु नहीं काहेते कि, अपना आप है । हे रामजी । जिन पुरुषोंने आत्माविषे स्थिति पाई है, तिनको मोक्षकी इच्छा भी नहीं, तौ स्वर्गादिककी इच्छा कैसे होवे, मोक्ष अरु स्वर्ग आत्माविषे जेवरीके सर्पवत् मिथ्या भासते हैं, तिनको केवल अद्वैत आत्मा निश्चय होता है ॥ हे रामजी ! स्वप्नविचे सुषुप्ति नहीं, अरु सुषुप्तिविषे स्वप्न नहीं, इनके अनुभव करनेवाली शुद्ध सत्ता है, यह दोनों मिथ्या हैं, निर्वाण अरु जीना तिनको दोनों तुल्य हैं, ऐसे जानिकर इच्छा किसीकी नहीं करते, प्रपंच उनको शशेके सींग अरु वंध्याके पुत्रवत् भासते हैं ॥ हे रामजी ! हमको तो सदा आकाशरूप भासता है, अरु जो तू कहै, उपदेश क्यों करते हो तो हमको भास कछु नहीं, तेरी इच्छाही तुझको वसिष्ठरूप होकार उपदेश करती है, हमको विश्व सदा शून्यरूप भासता है, अरु हमेको चेष्टा करता भी अज्ञानी जानते हैं, हमारे निश्चयविष चेष्टा भी नहीं, अरु हमारी चेष्टा अथकार भी कछु नहीं, अरु अज्ञानीकी चेष्टा अर्थाकार होती है, हमको चेष्टा सत् नहीं भासती, ताते अर्थीकार नहीं होती, जैसे ढोलका शब्द होता है, परंतु अर्थ उसका नहीं होता कि, क्या कहता है, अरु वाणीकार शब्द बोलता हैं, तिसका अर्थ होता है, तैसे हमारी चेष्टा अर्थीकार नहीं, अर्थ यह कि, जन्मको नहीं देती, अरु अज्ञानकी चेष्टा जन्मको देती है, अरु हमको संसार ऐसे भासता है, जैसे अवयवी सर्व अवयवको अपना स्वरूपही देखताहै, हस्त पाद शीश आदिक