पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५०४

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वसिष्ठगीतासंसारोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १३८५) नई होता है, अरु अपने स्वरूपविषे सदा जाग्रत् हैं, अपने स्वभावरूपी अमृतविषे मग्न होता है ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे वसिष्ठगीतोपदेशो नाम शताधिकैकोनषष्टितमः सर्गः ॥ १६९ ॥ शताधिकषष्टितमः सर्गः १६०. वसिष्ठगीतासंसारोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी !रूप अवलोकन मनस्कार यह परस्वभाव हैं, तिनको ब्रह्मरूप जान, परस्वभाव क्या अरु ब्रह्मरूप क्या है ॥ हे रामजी ! तेरा स्वरूप शुद्ध आकाश है, तिसविषे जो रूप अवलोकन सनस्कार फुरै है, सो प्रकृतिको मायाकार कुरै है, सो मायास्वभावक रि ये परस्वभाव हैं, परंतु अधिष्ठान इनका आत्मसत्ता है, ताते आत्मस्वरूप हैं, आत्माके जाननेते इनका अभाव हो जाता है ॥ हे रामजी। जब इसको ज्ञान उपजता है, तब संसार स्वप्नवत हो जाता है, संसारकी सत्ता कछु नहीं भासती, अरु जब दृढ़ता हुई तब सुषुप्त हो जाता है, इनका भाव भी नहीं रहता, तुरीयाविषे स्थित होता है, अरु जब तुरीयातीत होता है, तब अभावका भी अभाव हो जाता हैं, परम कल्याणरूप सत्तासमान पदको प्राप्त होता है, सो आदि अंतते रहित परमपद् है, ऐसा ब्रह्मस्वरूप मैं हौं, अरु परम शतरूप हौं, अरु निर्दोष हौं, अरु जगत् भी सब ब्रह्मरूप है, हमको सदा यही निश्चय रहता हैं; अरु ऐसा उत्थान नहीं होता, कि मैं वसिष्ठहौं, सदा आत्मस्वरूपका निश्चय रहता है, परिच्छिन्न अहंकार हमारा नष्ट हो गया है, ताते निरहंकार पदवि हम स्थित हैं, जब तू ऐसे होकार स्थित होवैगा, तब परम निर्मल स्वरूप हो जावैगा, जैसेशरत्कालका आकाश निर्मल शोभताहै, तैसे तू शोभेगा। हेरामजी।ऐसे पुरुषको बंधन है,सो श्रवण कर,जिस बंधनकरिआत्मपदको नहीं प्राप्त होता, प्रथम धन मणिका वधन हैं,भोगकी तृष्णाअरु बांधवका बंधन है, जिसको इन तीनोंकी वासना रहती है, तिसको मेरा धिक्कार है। बड़े अनर्थको देनेहारी यह वासना है, यह भोग है सो महारोग है, अरु