पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५०५

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(१३८६) योगवासिष्ठ । बाँधव ह बधनरूप हैं, अरु अर्थकी प्राप्ति अनर्थका कारण है, ताते इस वासनाको त्यागिकार आत्मपदविवे स्थित होहु, यह संसार भ्रममात्र है, इसकी वासना करनी व्यर्थ है, इसको सत् नहीं जानना, अरु यह जो तुझको संग मिलाप भासता है सो कैसा है, जैसे बैठे हुए स्मरण अवै; कि मैं अमुक साथ मिला था, तब वह प्रतिभा प्रत्यक्ष हृदयविषे भासती है, अरु जैसे संकल्पकार नगर रचि लिया तिसविषे मूर्ति मनुध्यादिक भासने लगें, तैसे यह जगह भी जान ॥ हे रामजी! तूमैं अरु यह जगत् भ्रममा संकल्पनगरके समान है, जैसे भविष्यत् नगरकी रचना है, वैसे यह जगत् है, अरु कर्ता क्रिया कम जो भासते हैं, सो भी भ्रममात्र हैं, केवल आत्मसत्ताही अपने आपविषे स्थित है, आत्मरूपी आकाशविषे यह जगतरूपी घुतलियां हैं, अरु संकल्पमात्र प्रत्यक्ष हुआ है, वास्तवते केवल शतिरूप आत्मतत्त्व है । हे रामजी । जो पुरुष स्वभावनिष्ठ हैं, तिनको आत्मतत्त्वही भासता है, अरु जिनको आत्मतत्वका प्रमाद है, तिनको नानाप्रकारका जगत् भासता है, अरु आत्माविषे यह जगत् कछु आरंभ परिणामकारकै बना नहीं जैसे सूर्यकी किरणोंविषे अज्ञानकारकै जलाभास भासते हैं, तैसे आत्मावि अज्ञानकारकै जगतकी प्रतीति होती है, जब आत्माका सम्यक् ज्ञान होवै, तब जगद्धम निवृत्त हो जाता है, जैसे सूर्यकी किरणें जाननेते जलभ्रम निवृत्त हो जाता है, अरु जैसे स्वप्नते जागे हुए स्वप्नसृष्टि अपना आपही भासती है, तैले अविद्याके नाश हुए सब अपना आपही भासता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे वसिष्ठगीतासंसारोपदेशो नाम शताधिकषष्टितमः सर्गः ॥ १६० ।। शताधिकैकषष्टितमः सर्गः १६१. जगदुपशमयोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच । हे रामजी 1 रूप अवलोकन मनस्कार सब ब्रह्मरूप है, जिसको ज्ञान प्राप्त होता है, तिसको सब ब्रह्मरूप भासता है, यही