पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५०७

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१. ३३८८ ) योगवासिष्ठ । शविषे आकाश स्थित है, तैसे आत्माविषे जगत है, न उदय होता है, न अस्त होता है, केवल शतरूप हैं, अरु उद्यअस्त भी तब होता है, जड़ कछु दूसरी वस्तु होती है, सो जगत् कछु भिन्न नहीं, आत्मस्वरूपही हैं, द्वैत अरु एक कल्पनाते रहित आत्मा अपने आपविपे स्थित है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणकेरणे जगदुपशमयोगोपदेशो नाम शताधिकैकपट्टितमः सर्गः ॥ १६॥

शताधिकद्विषष्टितमः सर्गः १६२. पुनर्निवाणोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ।।हेरामजी।यह विश्व आत्मा चमत्कार है:मृत्तिकाकी पुतली जैसे मृत्तिकारूप होती है, जैसे कागजकी पुतली कागजरूप होती है, तैसे विश्व आत्मरूप है, जैसे मृत्तिकाका दीपक देखनेमात्र होता है, काशका कार्य नहीं करता, तैसे यह जगत् देखनैमात्र है, विचार कियेते आत्माविना इतर सत्ता कछु नहीं, ताते जगत्की सत्यता आत्माते भिन्न कछु नहीं, जगतकी आस्था आमाके आश्रित होती है, जैसे जलविधे तरंग, अरु आकाशविचे शून्यता, अरु पवनविपे फुरना है, तैसे आत्माविषे जगत् अभिन्नरूप है, जैसे वायु चलती है, तबभी पवन है, उसको वायुका निश्चय है, तैसे चेतनविपे निश्चय है, कि जगत् वही स्वरूप है, ताते चेतन है, सो ज्ञानवान् जानता है कि, जगत् मेराही स्वरूप है ॥ हे रामजी ! यह आश्चर्य देख कि जगत् कछु दूसरी वस्तु नहीं, अरु भ्रमकारकै भिन्न भासता है, जैसे कथाविणे कथाके पुरुष विद्यमान भासते हैं, जो शुद्ध करते हैं इत्यादिक अपर किया करते हैं, तैसे यह जगत् भी सनोमा जान्ह ।। हे रामजी । जो विद्यमान है, सो अविद्यमान होजाता है, अरु जो अविमान्झ है, सो विद्यमान होजाता है, जैसे स्वप्नविषे जगत् अनुभवरूप है, इतर कछ नहीं, तैसे जामत् जगत् विचारकार देवैगा, तब ब्रह्मस्वरूपही भागहा, जैसे जो पुरुष सोया होता है, अरु स्वप्न जगत् तिसहीका रूप है, परंतु जबलग निद्वादोष है, तबलग भिन्न