पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५०८

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2 पुनर्निवणोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (३३८९) भासता है, अरु जब जागा तब सड़ अपनाही आप भासता है, तैसे जब यह पुरुष अपने स्वरूपविषे स्थित होकर देखता हैं, तब सब अपना आपही भासता है । हे रामजी ! रूप अवलोकन सनस्कार भी ब्रह्मस्वरूप है, अरु अात्मा इंद्रियोंका विषय नहीं, निराकार है, अरु बनके चितवनेते रहित है, संकल्पकार आपही रूप अवलोकन सनस्कारकरि स्थित हुआ है, इतर नहीं, सर्व वही है, अरू तिलीको कई शिव कहते हैं, कई ब्रह्म कहते हैं, कई आत्मा कहते हैं, कई शून्य कहते हैं, इत्यादिक नाम तिसीके शास्त्रकारने कहे हैं, सो संकल्पविषे कई हैं, अरु आत्मा केवल चिन्मात्र है, वाणीका विषय नहीं, शाँतरूप है, अरु चैत्य जो है दृश्य तिसते रहित है, सर्व शब्द् अर्थका अधिष्ठान है, अरू जगत् उसका चमत्कार है । हे रामजी ! आत्मा विषे एक अह द्वैतकफ्ना कोऊ नहीं,काहेते जो आत्मत्वमात्र है,अरुजगत् भी आत्मरूप है, जैसे आकाश अरु शून्यताविषेभेद कछुनहीं, तैसे आत्मावि अरुजगविषे भेकछुनहीं हे रामजी ! ऐसे भी किसी देश अथवा किसी कालविषे , होवै, जों स्वर्ण अरु भूषणविषे कछु भेद होवे, स्वर्ण भिन्न होवे, अझ भूषण भिन्न होवै, परंतु आत्मा अरु जगविषे कछु भेद नहीं, ऐसेही आत्मा प्रकाशता है, अरु अपने स्वभावविषे स्थित है। अपर दूसरी वस्तु कछु नहीं, जैसे मृत्तिकाकी सैन्य नानाप्रकाकी संज्ञाको धारती हैं, परंतु वृत्तिकाते इतर कछु दूसरी वस्तु नहीं, तैसे रोकारकै नाना प्रकारकी संज्ञा दृष्ट भी आती हैं, परंतु आत्माते भिन्न कछु नहीं, बहिरूप है ।। हे रामजी ! जो पदार्थ भासते हैं, सो अनुभव करिकै भासते हैं, पदार्थकी सत्ता अनुभवते इतर कछु नहीं, जब तू अनुभववि स्थित होकार देखेगा, तब अनुभवरूप अपना आपही भासैगा, अपना स्वभाव ज्ञानमात्र हैं, तिसके जाननेका नाम ज्ञान है ॥ हे रामजी ! ज्ञानविला जो तप यज्ञ दान आदिक क्रिया हैं सो सब व्यर्थ हैं,सब क्रियाकी सिद्धता ज्ञानकार होती हैं, जैसे उलूककी क्रिया रात्रिविषे होती है, सो दिन हुएते मिथ्या हो जाती है, तैसे तप दान आदिक क्रिया ज्ञानके उद्यविना व्यर्थ होती है ॥ हे रामजी। जोकछु क्रिया ज्ञानके निमित्त कारये सी पुरुष