पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५०९

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यौगंवासिष्टं। प्रयत्न श्रेष्ठ हैं, अरु इनते अन्यथा है, सो व्यर्थ हो, अरु धनके उपजावनेविषे भी अनर्थ होता है, अरु राखनेविषे भी नष्ट है, परंतु जो ज्ञानके साधननिमित्त इसको राखिये, अरु दीजिये, तब यह अमृत होजाता है ॥ हे रामजी ! यह जगत् भ्रममात्र है, जैसे मलिन नेत्रवालेको रूपविपर्यय भासता है, जैसे स्वप्नसृष्टि होती है, तिसविषे अज्ञ तज्ज्ञ भी भासते हैं, परंतु असत्रूप हैं, तैसे यह जगत् जो विद्यमान भासता है, सो अविद्यमान है, अरु आत्मा सदा विद्यमान है । हे रामजी । जो विद्यमान देव विष्णु है, तिसको त्यागकर अपर देवका पूजन करते हैं, तिनकी पूजा सफल नहीं होती, अरु विष्णु तिसपर कोपायमान भी होता है, सो विष्णु देव विद्यमान कैसे हैं, श्रवण कर ॥ हे रामजी ! आत्म अनुभवरूप सो विद्यमान देखे हैं, तिसको त्यागिकार जो अपरका पूजन करते हैं, सो जन्ममरणके बंधनते मुक्त नहीं होते, मूढताविषे रहते हैं, अरु आत्मदेवकी पूजा श्रवण कर, जो कछु अनिच्छित आवे सो तिसको अर्पण करिये, अझ ऐसी पूजाविषे भीस्थित नहीं होना, जो इसके जाननेवाला है, तिसविषे अहंप्रत्यय करणी यह बडी पूजा है ॥ हैरामजी ! इस आत्मदेवते इतर जो सूर्य चंद्रमा आदिक भेदपूजा है, सो तुच्छ है, जब तू आत्मपूजाविषे स्थित होवै, तब अपर पूजा तुझको सूखे तृणकी नई भासँगी, अरु दान भी आत्मदेवको करणा है, सो किसकारकै करनेयोग्य है, बोधकारिकै करने योग्य है, अरु कैसे उत्पन्न होता है, प्रथम वैराग्य अरु धैर्य बोधका कारण है, अरु संतोष होवे, यथालाभविषे संतुष्ट होना, अरु ब्रह्मविद्याका विचार करना, अरु संतका संग करना, इन साधनकार जब बोधरूपी सूर्य उदय होवैगा तब द्वैतरूपी अंधकार नष्ट हो जावैगा, ज्ञानरूपही भासैगा, बहुर जो ज्ञान उपजाहै सो भी शान्त हो जावैगा तातेउसी देवकी पूजा करु,जिसकारकै आत्मपदकी प्राप्ति होवे, अरु आत्मपङ्की पूजाके निमित्तफूल भी चाहिये, सो आत्मविचार करना, अरु सम जो है चित्तकी वृत्ति अंतर्मुख करणी, अरु । यथालाभविषे संतुष्ट रहना, संतकी संगति करनी, इन फूलनकारकै निवेदृन करना, यह पूजा भी तब होती है, जब अंतःकरण शुद्ध होता है, अरु