पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५१३

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मिटिज होगा, परम । निर्वाण से कोउ (१३९४) योगवासिष्ठ । सत्य जानिकरि काहेको तृष्णा करता है, इसको सत्य जानिकार तृष्णा करनी यही बंधन है । हे रामजी । तू अत्मा हैं, इसकी इच्छाकरि बंधमानक्यों होताहै, जैसे सिंह पिंजरेविषे आया दीन होता है, अरु बलकार जब पिंजरेको तोड़ि डारताहै, तब बडे वनविषे जाय निवास करता है, अरु निर्भय होता है, तैसे तू भी वासनारूपी पिंजरेको तोडिकार आत्मपदविपे स्थित होह, जो आत्मा सर्वका अधिष्ठान है, अरु सबते उत्कृष्ट है, तिस पदको तू प्राप्त होवैगा, जब इस संसारकी वासना नष्ट होवैगी तब आनंद होवैगा, अरु तू निर्वाणपदको प्राप्त होवैगा, अरु अफ़र होवैगा, परम उप-. शम लेय पदको प्राप्त होवैगा, अरु द्वैतभास मिटि जावैगा, केवल परमार्थ सत्ता भासैगी, इसीका नाम निर्वाण है, अरु यह चारों भूमिका शांतिके स्थान हैं, जैसे कोऊ पैढेकार तपता आवै, अरु तिसको शीतल स्थान प्राप्त होवै तब शाँतिको पाता है, वैसे यह चारों शांतिके स्थान हैं, निवणता, अरु निरहंकारता अरु वासनाका त्याग, अरु परम उपशम इन करिकै शैयविष स्थित होना यह शांतिका स्थान है, जब तू स्थित होवैगा तबद्वष्टा दर्शन दृश्य त्रिपुटीका अभाव होजावैगा, केवल द्रष्टाही रहैगा ।। हे रामजी ! इष्टा भी उपदेश जतावनेके निमित्त कहा है, जब दृश्यका अभाव हुआ तब द्रष्टा किसका होवे, केवल अपने आपविषे स्थित हैं, द्वैत जो है चैत्य, तिसते रहित अद्वैत चेतन है, शुद्ध है, तिसविषे स्थित होकर जगत्का त्याग करु, यह जगतबुद्धि जन्मके देनेहारीहै, जो जगत्केपदार्थ सुखदायी भासते हैं, सो दुःखके देनेहारे हैं, इनको विष जानकरित्याग कर, जैसे आकाशविषे तरुवरे भासते हैं, तैसे यह जगत् अनहोता भासता है, आत्माविषे दृश्य कछु नहीं, एकही पदार्थविषे दो दृष्टि हैं, ज्ञानी उसको आत्मा जानते हैं, अरु अज्ञानी जग जानते हैं ॥ दोहा॥ सब भूतनकी रात्रि सो, संतनका दिन होय ॥ जो लोकन दिन मानिया, संत रहैं तब सोय ॥ १ ॥ ज्ञानी परमार्थतत्त्वविषे जागे हैं अरु संसारकी ओरते सोये रहे हैं, अरु अज्ञानी परमार्थतत्त्वते सोए हुए हैं, अरु संसारकी ओर सावधान हैं ॥ हे रामजी ! यह जगत् मनते फुरा है, अरु ज्ञानीका मन सतपदको प्राप्त भया है. इसकरिकै जगतकी भावना नहीं