पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५१४

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अलैकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १३९५) फुरती है, जैसे बालकको संसारके पदार्थका ज्ञान नहीं होता, तैसे ज्ञानीके निश्चयविषे जगत् कछु वस्तु नहीं ॥ हे रामजी। जब ज्ञान उपजता है, तब जगत् कछु भिन्न वस्तु नहीं भासता, जैसे जलकी बूंद जलविषे डारिये, तौभिन्न नहीं भासती, तैसे ज्ञानीको जगत् भिन्न नहीं भासता, जैसे बीजविषे वृक्ष होता है, तैसे मनविषे जगत् स्थित होता है, जैसे वृक्ष बीजरूप हैं, तैसे जगत मनरूप है, जब जगत नष्ट होवै तब मन भी नष्ट हो जावैगा अरु मन नष्ट होवै, तब दृश्य भी नष्ट होवैगा, एकके अभाव हुए दोनोंका अभाव हो जाता है, अरु मन नष्ट होवै तौ फुरना भी नष्ट होवै अरु ऊरना नष्ट होवै तौ मन भी नष्ट होता है । हे रामजी । यह जगत अंतर बाहर जो भासता है, सोई मन है. ताते मनको स्थिर कर देखेगा तब जगत्की सत्यता नहीं भासेगी,अज्ञानीके हृदयविषे जगत् दृढ स्थित है ताते दुःख पाता है, जैसे बालकको अपने परछाईंविषे भूत भासता है, अरु दुःख पाता है, अरुअपर कोऊ निकट खड़ा है, तिसको नहीं भासिता वह तुःख नहीं पाता। हे रामजी! यह जगत् कछु सत् वस्तु होता तौ ज्ञानवान्को भी भासता सो ज्ञानीको नहीं भासता, ताते जगत कछु वस्तु नहीं, जैसे एकही स्थानविर्षे दो पुरुष बैठे हैं अरु एकको निद्रा आई है, तिसको स्वप्न जगत् भासता है, अरु नानाप्रकारकी चेष्टा होती है, अरु दूसरा जो जागता बैठा है, तिसको उसका जगत् नहीं भासता तैसे जो पुरुष परमार्थसत्ताविषे जागृत हैं, तिसको जगत् शुन्य भासता है ॥ हे रामजी । यह जगत् मिथ्या है, तिसकी तृष्णा तू काहेको करता है, अपने स्वभावविषे स्थित होडु, यह जगत् परस्वभाव है, ऐसे जानिकार भावै जैसी चेष्टा करु, तुझको बंधन न करैगी, अरु पूर्व पदकी प्राप्ति होवैगी, जैसे सूखे तृण अग्निके जले हुयेको पवन उडाय ले जाता है, तब नहीं जानता, कि कहां गया, तैसे ज्ञानरूपी अग्निकार जलाया, अरु निरहंकारतारूपी पवनकर उडाया, संसाररूपी तृण न जानेगा कि कहाँ गया, जैसे लाख योजनपर्यंत चला जावे, तौ भी आकाशही इथे आता है, सब सृष्टिको धार रहा है, तैसे सब दृश्य जगत्को आत्मा धारता है, संसारका शब्द अर्थ आत्माविषे को नहीं, इसको छोडि