पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५१५

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(१३९६) योगवासिष्ठ । करि देख जो सर्व शब्द अर्थका अधिष्ठान आत्माही है ॥ हे रामजी ! रूप अवलोकन मनस्कार मिथ्या उदय हुए हैं, ताते इनका त्याग करु जैसे मरुस्थलविषे जलाभांस मिथ्या है, तैसे आत्माविषे जगत् मिथ्या भ्रममात्र है, इसके संबंधकारिकै दुःखी होता है, जैसे जेवरीविषे सर्प अरु सीपीविषे रूपा मिथ्या है, तैसे आत्माविषे जगत् है, तू आत्मा ब्रह्म है, अरु दुःखते रहित है, अपने स्वभावविषे स्थित होहु, अरु आत्मदृष्टिकारकै देख कि सर्व आत्मा है, अथवा जगत्को मिथ्या जान तौ भी शेष आत्मपद रहूँगा, जैसे जागृत स्वम सुषुप्तिविषे अभाव हुए शांतपद शेष रहता है, तैसे जगतके अभाव कियेते आत्मपद शेष भासैगा, यह जगत् अत्यंत अभाव है, अरु जो दृष्टि आता है सो भ्रममात्र है, एक कालविवे होता है, अरु दूसरे कालविषे नष्ट हो जाता है, स्वप्नविषे जागृतका अभाव हो जाता है, अरु जागृतविचे स्वप्नका अभाव हो जाता है, अरु सुषुप्तिविषे दोनोंका अभाव हो जाता है, ताते भ्रममात्र है, अरु विश्व आत्माका चमत्कार है, जैसे समुद्रविषे तरंग होते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् है, अहता कारकै उदय होता है, अहंताके अभावते अभाव हो जाता है, जिनको अहंताका अभाव हुआ है, वही संत हैं, अरु उत्तम पुरुष हैं, जिन महानुभाव पुरुषों का अभिमान नष्ट हो गया है, अरु भोगकी आशा नष्ट हो जाती है, वह निभ्रांतिरूप नित्यही समाधिरूप होते हैं । इति श्रीयोगवा० निर्वाणप्र० ब्रह्मैकताप्रतिपादन नाम शताधिकत्रिषष्टितमः सर्गः ॥ १६३ ॥ शताधिकचतुःषष्टितमः सर्गः १६४. हरिणोपाख्याने वृत्ताँतयोगीपदेशवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह मनरूपी मृग भटकता है, अरु वनविषे जलता है, वह कौन वृक्ष है, समाधानरूप जिसके नीचे आया शतिपदको प्राप्त होवै उसके फूल फल लता कैसे होते हैं, अरु वृक्ष कहां होताहै, सो कृपा कर कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी। जिसप्रकार