पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५१८

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मनमृगौपाख्यानयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (३३९९) तिसको द्वैत अज्ञान प्रमादरूपी वधिक मारने लगता है, तिसकार दुःख पाता है, तिसके भयकारि गाँवके निकट आता है, तब वह अपोआप इसको पकडकर खेद देते हैं, तिसकार बड़े कष्टको पता हैं, सो गाँववासी इंद्रियां हैं, जब इनकी ओर आता है, तब अपने अपने विषयको ओर बंधायमान करती हैं, इनके भयकार बहार वनको जाता है, तहाँ वनकी तप्तकार दुःखी होता है, सो विषयकी अप्राप्तिरूपी तप्त हैं, तिसको त्यागिकार रसरूप स्थानको शांतिके निमित्त दौडताहै, जब वहाँ जाताहै तब कामरूपी श्वान इसके मारनेको दौडता है, तिसके भयकारे बहुरि वनकी ओर धावता है, तब क्रोधरूपी अग्नि जलाती है,अरु वासनारूपी मच्छर दुःख देते हैं, अरु लोभ मोहरूपी अँधेरी चलती है, तिसकार अंध हो जाता है, हरे तृणको देखकर ग्रहण करता है, तब टोयेविचे गिर पड़ता है, वह टोया तृणकरि आच्छादित है, सो तृण कौन है, पुत्र धन तिसको सुंदर देखिकार ग्रहण करती है, तब ममताविषे गिर पडता' हैं, इसप्रकार दुःख पाता है । हे रामजी 1 जब यह मन झूठ बोलता है, तब मृत्तिकाविषे लौटता है, ऐसी चेष्टा करता है, अरु जब मनरूपी व्याघ्र आता है, तब इसका भक्षण कर जाता है, जब ध्यानरूपी वृक्षते विमुख होता है, तब एते कष्टको पाता है, जब मुनरूपी व्याघ्र छूटता हूँ। तब आशारूपी जंजीरविषे बंधायमान होता हैं, जबलग इस - वृक्षके निकट नहीं आता, तबलग बडे कष्ट स्थानोंको जाता है, तमालू वृक्षादिक्के तले भी जाता हैं, अरु कंटकके वृक्षों तले भी जाता है, परंतु शांतिवान् किसी स्थानविषे नहीं होता, बडे कष्टको पाता है। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे हरिणोपाख्यानेवृत्ततियोगोपदेशो नाम शेताधिकचतुःषष्टितमः सर्गः ॥ १६४ ॥ शताधिकपैचषष्टितमः सर्गः १६५. मनमृगोपाख्यनयोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी इसप्रकार मूढबुद्धि मनरूपी हरिण भटकता है. ताते मेरा यही आशीर्वाद है कि, तुमको उस वृक्षका संग