पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२१

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(१४०२ ) सो अवश्य उसको भी आनि प्राप्त होती है, मिटती नहीं, शुभ अथवा । अशुभ, जैसे मेधते बूदें गिरती हुई नष्ट नहीं होतीं मेघ मैत्रशक्तिकरिकै नष्ट होता है, तैसे प्रारब्धकर्म नष्ट नहीं होता, अपर नष्ट होते हैं। परंतु वह तिनविषे बंधायमान नहीं होता, अज्ञानीके हृदयविषे संसार सत्य भासता हैं, अरु भिन्न भिन्न पदार्थ भासते हैं, पदार्थका ज्ञान है। अरु ज्ञानीके हृदयविषे आत्माको ज्ञान है, संसारकी सत्यता तिसको नहीं भासती ॥ हे रामजी । यह जो समाधानरूपी वृक्ष मैं तुझको कहा है, सो विधिसंयुक्त तिसकी सेवनाकारये तो अनुभवरूपीफल प्राप्त होताहै, अरु बोधते रहित होकार करता है, तो अनेक यत्नकार भी फलकी प्राप्ति नहीं होती, काहेते ऐसी भावना उसको नहीं प्राप्त होती, कि आत्मा शुद्ध है। अरु सत् चिद् आनद है, अरु जिनको यह भावना प्राप्त होती, तिनको भोगकी इच्छा नहीं रहती, जैसे किसीने अमृतपान किया होता है, तब • अपर अमल अरु कटुक फलकी वांछा नहीं करता, तैसे ज्ञानी इच्छा नहीं करता, जैसे रुईके पोवेको अग्नि लगी, अरु ऊपरते तीक्ष्ण पवन चला तो नहीं जानता कि, कहाँ जाय पडा, तैसे जगतरूपी रुईका पोवा ज्ञान अग्निकरि दुग्ध किया हुआ, अरु वैराग्यरूपी पवनकर उड़ाया, नहीं जानाजाता कि, कहाँ जाय पडा, आकाशही आकाश भासता है, जगत् सत् नहीं भासता, तो फिर तृष्णा किसकी करै, तृष्णाते रहित स्थित होता है । हे रामजी! दुःखका मूल तृष्णा है, तृष्णाकार भटकता है, जैसे पर्वतके पक्ष थे, तबलग उडते थे, पक्षविना उडनेते रहित भये गंभीर स्थिर हो रहे, तैसे जब मनते वासना नष्ट हुई, तब मन स्थिर हो जाता है । हे रामजी ! पैई वांछित देशको तब जाय प्राप्तहोता है, जब इतर देशका त्याग करता है, तैसे आत्मा शुद्धस्वरूप परमानंद अपनाआप तवं प्राप्त होता है, जब धन लोक पुत्र ईषणाका त्याग करें; जब आत्माकी प्राप्ति भई तब निर्विकल्प समाधिकार निर्विकल्प चेतनका साक्षात्कारहोता है, जबसमाधिविषे साक्षात्कारहुआ,तबउत्थानकालविषेभीसमाधिस्थित होता है, अरु परम निर्वाणपदको प्राप्त होता है, अरु चित्तरूपी वल्ली दूर हो जाती है, जैसे रसडीको बल होती है जिसको खैचिकर बहुरि